यूजीसी के एक सर्कुलर को ढाल बनाकर विश्वविद्यालय प्रशासन की ओर से एमफिल और पीएचडी के दाखिले में साक्षात्कार को सौ फीसद आधार बना डालने वाले जेएनयू के फैसले का छात्र संगठन कड़ा विरोध कर रहे हैं। विश्वविद्यालय का कहना है कि यह फैसला यूजीसी के नोटिफिकेशन के आधार पर लिया गया है। सवाल उठे हैं कि यूजीसी का नोटिफिकेशन अगर अनिवार्य है तो बाकी केंद्रीय विश्वविद्यालयों पर क्यों नहीं लागू है?  मामले ने तूल तब पकड़ा जब इस नोटिफिकेशन का विरोध करने वाले नौ छात्रों को विश्वविद्यालय प्रशासन ने निलंबित कर दिया। फिलहाल पीएचडी के छात्र दिलीप यादव भूख हड़ताल पर हैं। शनिवार को छात्र संघ ने कुलपति के सभी आग्रह ठुकरा दिया।

आइसा की अध्यक्ष सुचेता डे ने कहा, ‘निश्चित तौर पर जेएनयू प्रशासन को यह फैसला वापस लेना होगा। जेएनयू को कोई पार्टी या बाहरी संगठन चलाए, यह स्वीकार नहीं। मानव अधिकार, छात्र अधिकार, आरक्षण जैसे जनअधिकार की लड़ाई में किसी हद तक जाएगी आइसा’। आइसा उपाध्यक्ष (जेएनयू) नीरज कुमार ने बताया कि आइसा ने तीन सालों की मेहनत कर एक सर्वे किया था जिसमें पूर्व के दिनों में हुए दाखिले के दौरान साक्षात्कार के अंकन में कथित भेदभाव को सामने लाया गया। आइसा ने न केवल साक्षात्कार में मिले अंकों पर शोध किए हैं बल्कि सूचना के अधिकार के तहत आंकड़े जुटा कर रिपोर्ट बनाई। इस पर एक कमेटी भी गठित की गई। उन्होंने कहा, ‘कमेटी की रिपोर्ट पर जेएनयू प्रशासन को चेतना था या साक्षात्कार का महत्त्व कम कर इस मुद्दे पर सजग होना था। लेकिन यूजीसी की आड़ में प्रशासन ने एकदम उलट फैसला ले लिया’।

भूख हड़ताल पर बैठे छात्रों ने कहा, ‘क्या जेएनयू यूपीएससी से भी आगे है। क्यों वहां देश को चलाने वाले नौकरशाहों की नियुक्ति प्रक्रिया में साक्षात्कार को सर्वेसर्वा मान्यता नहीं है। वहां लिखित परीक्षा की तुलना में इंटरव्यू एक चौथाई है। ऐसे में जेएनयू प्रशासन और यूजीसी को यह साबित करना होगा कि एमफिल और पीएचडी में दाखिले के लिए व्यक्तित्व को आंकने की आखिर क्या जरूरत है? उनके पास नामी मनोवैज्ञानिकों की ऐसी कौन सी टोली है जो पांच या दस मिनट के इंटरव्यू में किसी व्यक्ति की पूरी काबलियत जांच लें, उसके शोधी क्षमता को परख ले’।