पिछली एक जुलाई से बाजार जीएसटी (वस्तु एवं सेवा कर) के दायरे में है। महानगरीय जीवन में तुरंता भोजन, तरल पेय, बनीबनाई खाने को तैयार चीजें ज्यादातर लोगों की जरूरत बन चुकी है। महंगे रेस्तरां से इतर दिल्ली की गलियां तो खाने-पीने की चीजों के नाम से जानी जाती हैं। दिल्ली की पराठे वाली गली हो या जलेबी वाली गली या फिर नामी रेस्तरां। सबने कानून तो माना है लेकिन तोड़ भी निकाल लिया है। जीएसटी ‘लजीज खानों व पकवानों’ पर बेअसर है। यह लगेगा तो जरूर लेकिन दिखेगा नही! खाने-पीने की तमाम चीजें मसलन समोसे, कचौरियां, ढोकला, चाट, गोलगप्पे, मिठाइयां, काजू बर्फी से लेकर बेसन लड्डू तक, जलेबी से लेकर रबड़ी तक, देसी शीतल पेय से लेकर लस्सी तक, सब के सब पुराने दाम पर हैं। कारोबारियों की तोड़ की वजह से इन तमाम चीजों के दाम जीएसटी लगने के बावजूद उतने ही हैं जितने पहले हुआ करते थे। दरअसल इसमें लागत और मुनाफा में चले आ रहे भारी अंतर ( 60 फीसद तक) ने सरकार और ग्राहक दोनों को एक साथ साध लिया है। व्यापारियों ने इन तमाम चीजों के दाम कम कर दिए, उनपर जीएसटी का फीसद वाला स्टीकर चस्पा किया और उन्हें पहले वाले रेट पर ही ग्राहकों को मुहैया कराया।
स्वाद पर नहीं डालेंगे बोझ
कन्हैया लाल दुर्गा प्रसाद दीक्षित पराठा शॉप के मालिक अभिषेक दीक्षित ने कहा- हमने जीएसटी पंजीकरण करा लिया है। बिल भी देंगे। लेकिन ग्राहकों पर बोझ नहीं डालेंगे। चाहे आलू पराठा हो या दाल, या मिक्स वेज या फिर मटर के पराठे, मिर्ची के पराठे हों या फिर केले या किशमिश की पहले वाली कीमतें रहेंगी। यहां से कुछ ही फर्लांग की दूरी पर रबड़ी-फलूदे के कारोबारी दिलीप शर्मा अपने व्यवसाय में रोजमर्रा की तरह व्यस्त दिखे। उनके कर्मचारी दीपक ने कहा-जीएसटी देंगे लेकिन ग्राहकों से लेंगे नहीं। यहीं ‘द फर्निस’ के मालिक सौरभ ने भी ऐसे ही बातें कही। उन्होंने कहा- हम जीएसटी पंजीकृत हैं, लेकिन हमें अलग से दाम बढ़ाने की जरूरत नहीं। कढ़ी चावल, राजमा चावल, पनीर रौल, पालक पनीर, पनीर टिक्का सब उसी रेट में बेच रहे हैं।
इतना ही नहीं हल्दीराम के चांदनी चौक, रेस्तारां के व्यवस्थापकों में श्रीकांत और मोहित ने जनसत्ता से कहा- हल्दीराम सभी चीजों पर जीएसटी दे रहा है। उनके सभी उत्पादों पर कीमतें दिखाई गई हैं। लेकिन कंपनी ने ग्राहकों पर बोझ न डालने का फैसला किया है। मसलन प्याज कचौरी जो पहले 30 रुपए में मिलती थी जीएसटी के बाद उसके सामने घटे दाम (26 रुपए + जीएसटी=30) दर्शाए गए हैं। उसी प्रकार पनीर-कचौरी जो पहले 32 रुपए का हुआ करता था अब घटे दाम के साथ (28 + जीएसटी=32) पर मौजूद है। मटर समोसा जो 20 रुपए प्रति इकाई बिक रहा था वो यहां अब 18 का तो हो गया लेकिन जीएसटी के साथ वह (18 + जीएसटी= 20) का है। हल्दीराम का ढोकला जो 198 रुपए किलो पिछले महीने तक बिक रहा था उस पर अब 175 रुपए प्रति किलो का बता कर जीएसटी लगा दिया गया है। 198 रुपए वाला ढोकला एक जुलाई के बाद ‘175 + जीएसटी= 198’ वाला हो गया है।
बता दें कि रेस्तरां में मिलने वाली तमाम चीजों पर जीएसटी में अलग-अलग कर ढांचा है। मिठाइयों पर 5 फीसद, स्नैक्स (नमकीन) पर 12 फीसद, केक-पेस्ट्री और रेस्तारां में खाने (लंच -डीनर) पर 18 फीसद टैक्स तय है। हल्दीराम की भुजिया, मूंगदाल अपने पुराने मूल्य पर क्रम से 46 और 51 (200 ग्राम पैकेट) अब भी मिल रहे हैं। अंतर यही है कि कंपनी ने उनकी अधिकतम खुदरा मूल्य में जीएसटी के मुताबिक कमी कर दिया गया है। 817 रुपए प्रति किलो मिलने वाली काजू बर्फी जीएसटी के बाद उसी हैसियत में है। काउंटर पर केवल उसका लुक बदला है। वहां ग्राहकों को मुस्कुराने की वजह बताता हुआ एक पर्ची लगा दी गई है जिसपर लिखा है – ‘778 + जीएसटी= 817’। उसी प्तरह 400 रुपए किलो बिकने वाला बेसन लड्डू के ट्रे के आगे ‘380+ जीएसटी= 399’ अब दर्ज है।
लागत और मुनाफे का अंतर
इस सवाल पर रेस्तरां व्यवसायी ने अपना नाम प्रकाशित न करने की शर्त पर कहा, दरअसल इस धंधे में 60 से 70 फीसद तक का मुनाफा है। रेस्तरां में खाना-पीना पहले से ही महंगा है। यह क्षेत्र ‘लागत चवन्नी तो आमदनी रुपइया’ सरीखे का है। यहां बेसन 90 से 95 रुपए किलो और चीनी 45 रुपए किलो और बेसन लड्डू 260 से 400 रुपए किलो। एक ही उत्पाद एक ही बाजार में चार गुणा मूल्य के अंतर पर बिक रहे हैं। मसलन पेठा 80 रुपए किलो से 260 रुपए किलो तक उपलब्ध है। उन्होंने बताया कि हल्दीराम 130 रुपए में आधा किलो पेठा देता है तो दूसरा व्यापारी 40 रुपए में आधा किलो कहां से दे देता है? सारा खेल कम लागत और भारी मुनाफे से जुड़ा है। शायद यही वजह है कि कारोबारियों ने जीएसटी को मुनाफे में ही जोड़ना उचित समझा।
तो उठा सवाल भी
कारोबारियों के इस तोड़ ने ग्राहकों को मुस्कुराने की वजह भले दी हो लेकिन साथ ही कुछ सवाल भी छोड़े हैं। क्या एमआरपी को लेकर कंपनियों पर नियंत्रण नहीं होनी चाहिए? क्या लागत और विक्रय मूल्य के एक खास अनुपात रखने पर बहस नहीं हो सकती? खासकर दवा कंपनियों को लेकर। इस कड़ी में पेप्सी-कोक जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनियां क्या करेंगी? जहां उनके लागत और एमआरपी में भारी अंतर है। फिलहाल वो अभी पुराने दर पर बेची जा रहीं है, दुकानदारों का कहना है कि अभी पुराना माल है और सरकार ने पुराने माल को खत्म करने का कुछ समय दिया है।
