‘कैंसर जैसी जानलेवा बीमारी से जूझने के साथ ही मुझे अपने स्कूल की उपेक्षा भी झेलनी पड़ी। कोई गलती न होने के बावजूद मेरे साथ गलत बर्ताव किया गया। मेरे चिकित्सा प्रमाणपत्र और एम्स के मनोवैज्ञानिक की ओर से दिए गए प्रमाणपत्र का भी विद्यालय प्रबंधन पर कोई असर नहीं पड़ा। लिहाजा मुझे स्कूल छोड़ना पड़ा। यह कहना है कैंसर पीड़ित रहीं सिमरन आनंद का। यह आपबीती सिर्फ सिमरन की ही नहीं हैं, बल्कि ऐसे हजारों बच्चे हैं जो कैंसर के इलाज के कारण नियमित रूप से स्कूल नहीं जा पाते और मजबूरन उन्हें स्कूल छोड़ना पड़ता है। कैंसर से जूझ रहे ऐसे ही बच्चों ने नेशनल चाइल्डहुड कैंसर सर्वाइवर्स नाम का एक समूह बनाया है और केंद्र सरकार के सामने प्रस्ताव पेश कर शिक्षा के मौलिक अधिकारों की मांग कर रहे हैं। इनका कहना है कि कैंसर और उसका इलाज तो दर्द देता ही है, लेकिन समाज की ओर से मिलने वाला तिरस्कार इससे कहीं ज्यादा दर्द देता है।

नेशनल चाइल्डहुड कैंसर सर्वाइवर्स की ओर से इस संबंध में याचिका तैयार की गई और बचपन में कैंसर से जंग जीत चुके सर्वाइवर्स ने इस पर दस्तखत किए। यह याचिका नीति आयोग के सदस्य डॉ वीके पॉल को सौंपी गई है। यह याचिका ‘चाइल्डहुड कैंसर सर्वाइवरशिप: अ डिसएबिलिटी’ पर साल भर हुई बहस के बाद तैयार की गई थी।

पढ़ाई व समझ दोनों पर पड़ा बीमारी का असर

किड्स कैन कनेक्ट नामक समूह की ओर से किशोर, युवा और वयस्क कैंसर सर्वाइवर्स समूह किड्सकैन की बीते दिनों दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, पटना और लखनऊ में कांफ्रेंस हुई। सर्वाइवर वर्कशॉप की ओर से तैयार की गई प्रश्नावली में यह सामने आया कि कैंसर पीड़ित 85 फीसद बच्चों की पढ़ाई का एक साल से ज्यादा का वक्त बर्बाद हुआ है। स्कूल में कम हाजिरी के कारण उन्हें महत्त्वपूर्ण बोर्ड और कॉलेज परीक्षा में बैठने नहीं दिया गया। कुछ बच्चों का तो कैंसर के कारण स्कूल जाना तक छूट गया। कई बच्चों की प्रतियोगी परीक्षाएं छूट गर्इं और वे प्रतियोगी परीक्षाओं में नहीं बैठ पाए।

आरक्षण नहीं, चाहिए शिक्षा का अधिकार

कैंसर, उसके इलाज, दवाओं और रेडिएशन थेरेपी से इन बच्चों पर कई हानिकारक प्रभाव पड़ सकते हैं, जिससे इनकी याद करने की, गणित के सवाल हल करने की और आलोचनात्मक ढंग से सोचने की क्षमता कम हो सकती है। लेकिन कैंसर सर्वाइवर्स का कहना है कि न तो उन्हें आरक्षण चाहिए और न ही वे चाहते हैं कि उनकी पहचान दिव्यांग के रूप में बने। इसकी जगह उन्होंने शिक्षा के अधिकार की सुरक्षा की मांग की है।

शिक्षा व सेहत का विशेष अधिकार मिले

कैन किड्स की अध्यक्ष पूनम बगाई ने कहा कि हम चाहते हैं कि शिक्षा के अधिकार में सभी कैंसर सर्वाइवर्स को उनका हक मिले। उनके बर्बाद हुए शैक्षणिक साल (सत्र) को ब्रिज कोर्स और परीक्षा मॉड्यूल के जरिए पूरा करने का मौका मिले। बगाई खुद भी कैंसर सर्वाइवर रह चुकी हैं। उन्होंने कहा कि सितंबर महीने को इंटरनेशनल चाइल्डहुड कैंसर मंथ के रूप में मनाया जाता है। इसी के मद्देनजर देश के कई शहरों में कांफ्रेंस का आयोजन किया गया।

तमाम कैंसर का इलाज अब मुमकिन है

एम्स की बाल कैंसर रोग विशेषज्ञ डॉ रचना सेठ का कहना है कि बच्चों में तमाम तरह के कैंसर का इलाज अब मुमकिन है। यह राहत की बात है कि ऐसे बच्चों को समय रहते उचित इलाज देकर उनकी जिंदगी बचाई जा सकती है। इलाज के दुष्प्रभावों के अलावा वे सामान्य जीवन जी सकते हैं। हालांकि उनके भावी जीवन की बेहतरी के लिए और उपाय किए जाने चाहिए।

प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना में होगा इलाज

नीति आयोग के सदस्य व बाल रोग विशेषज्ञ डॉ विनोद कुमार पॉल ने कहा कि बचपन के कैंसर का इलाज प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना के दायरे में आएगा और यह योजना गरीब परिवारों को पांच लाख रुपए का स्वास्थ्य बीमा प्रदान करेगी। बीपीएल और निम्न-मध्यम वर्ग के परिवारों के मरीजों को इस योजना से फायदा होगा। डॉ पॉल ने यह भी कहा कि बाल कैंसर का मूल्यांकन आयुष्मान भारत योजना के तहत किया जाएगा और इस संबंध में दर तय की गई है। उन्होंने यह भी कहा कि इस योजना के तहत 2022 तक देशभर में डेढ़ लाख स्वास्थ्य और कल्याण केंद्र खोले जाएंगे।

कैंसर से उबरे बच्चों के सामने बेहतर भविष्य की चुनौती

सिमरन बताती हैं कि चार साल की उम्र में उनका ब्लड कैंसर का इलाज शुरू हुआ। इलाज के दौरान उन्हें रेडियोथेरेपी दी गई, जिसमें शरीर की स्वस्थ कोशिकाओं को भी नुकसान पहुंचा। इसके बाद उन्हें गणित के सवाल हल करने और इसके सूत्रों को समझने में परेशानी होने लगी। नतीजा यह हुआ कि वह नौवीं पास नहीं कर पार्इं। स्कूल ने उन पर दोबारा नौवीं पढ़ने और परीक्षा पास करने का दबाव डाला। आज वे ओपन स्कूल से पढ़ रही हैं और इस साल उन्होंने 12वीं पास कर ली है।

किसी ने नहीं बताया कि मुझे कौन सा करिअर अपनाना चाहिए

अजय कुमार भी कैंसर पीड़ित रहे हैंं। वे बताते हैं कि इसका पता उन्हें तब चला जब वे 11वीं में थे। इस बीमारी के कारण वे 2003 से 2007 तक पढ़ नहीं पाए। अंत में उन्होंने 2008 में एनआइओएस से अपनी शिक्षा पूरी की और पत्राचार से बीकॉम की पढ़ाई की। दुर्भाग्य से इलाज के दौरान वे फिर बीमार पड़ गए और उनकी पत्राचार की पढ़ाई के दो साल भी बर्बाद हो गए। इसलिए 2011 में उन्हें पढ़ाई फिर से शुरू करनी पड़ी। 2014 में 27 साल की उम्र में उन्होंने स्नातक किया। अजय कहते हैं, ‘किसी ने मुझे पढ़ाई के लिए प्रेरित नहीं किया, न ही किसी ने बताया कि मुझे कौन सा करिअर अपनाना चाहिए और अब इसके लिए बहुत देर हो चुकी है’।

कुछ तथ्य

1.कैंसर से देश में हर हफ्ते औसतन 264 बच्चों की मौत होती है।

2. बचपन में हुए कैंसर से देश में 2010 में 13726 बच्चों की मौत हुई, जिसमें 0.7 फीसद बच्चे एक महीने से 14 साल की उम्र के थे।

3. एक अनुमान के मुताबिक, हर साल कैंसर पीड़ित बच्चों में से आधे से भी कम (केवल 36 हजार) बच्चे ही देशभर में कहीं भी कैंसर केअर सेंटर में पहुंच पाते हैं।