देवघर में कांवड़ियों के लिए सरकारी इंतजाम इस साल फुस्स नजर आ रहा है। सुल्तानगंज से देवघर तक 105 किलोमीटर कांवड़ियों की कठिन पैदल यात्रा बोल बम के जयकारे के साथ ही तय हो रही है लेकिन मेला उद्घाटन के दिन जो दावे अधिकारियों ने किए थे उनसे हकीकत मेल नहीं खा रहे हैं। सुल्तानगंज से देवघर के रास्ते का मुआयना करने पर साफ़ जाहिर होता है कि होटलों के भोजन या दूसरी जरुरी चीजों की कीमतों पर प्रशासन का कोई काबू नहीं है। तभी जहां-तहां दुकानदार और कांवड़ियों के बीच रोजाना बकझक और हाथापाई की नौबत आती रहती है। हालांकि, दुकानदारों ने दिखावे के लिए सरकारी रेट टांग रखे है। जिला प्रशासन ने भी मूल्य तालिका की घोषणा कर अपनी ड्यूटी पूरी कर ली है। उस पर कितना अमल हो रहा है, इससे अधिकारियों को कोई सरोकार नहीं है।
दरअसल, दुकानदार साल भर तक सावन महीने का इंतजार करते हैं। इसी कमाई से उनका पूरे साल का खर्च चलता है। रंगदार, ठेकेदार, सप्लाई महकमा, पुलिस, व्यापारी बगैरह का नाम लोग इसी श्रेणी में लेते हैं। अलबत्ता देवघर ज़िला प्रशासन ने शहरी इलाकों में और भागलपुर जिला प्रशासन ने ग्रामीण इलाकों में मूल्य नियंत्रण का दावा किया था, जो खोखला साबित हो रहा है।
बाबाधाम का मशहूर पेड़ा और मुकाना के दाम इस बार आसमान छू रहे हैं। खाने लायक पेड़ा 350 से 450 रूपए प्रति किलो बेचे जा रहे हैं। देवघर आनेवाले बतौर प्रसाद पेड़ा और मुकाना खरीदकर अपने घर ले जाते हैं। साथ में सिंदूर, टिकली और चूड़ी औरतें जरूर खरीदती हैं। बाबाधाम में इन सामानों को खरीदकर पहनने का मतलब है अमर सुहाग की कामना करना। कांवड़ियों की ऐसी धार्मिक भावना ऐसे सामान बेचने वालों के मनमाफिक दाम वसूलने के द्वार खोल रही हैं। जिला प्रशासन के रेट वाले पेडों की ओर देखने भी कांवड़िए पसंद नहीं कर रहे। मटमैले, चीनी से भरपूर पेड़ों पर भिनभिनाती मक्खियों के झुंड। जाहिर है पैसे खर्च कर कौन बीमारी घर ले जाना चाहेगा।
सावन में देवघर के वाशिंदों की दूसरी समस्या है मेहमानबाजी। कोई न कोई रिश्तेदार रोजाना बाबा का जलाभिषेक कर मुलाक़ात करने आता ही है। नतीजतन लोकलाज या जैसे भी हो खातिरदारी लाजिमी है। ऐसे में एक साल का बजट एक महीने में ही चरमरा जाता है। संपन्न और तेज तर्रार लोग तो महंगाई के डर से पहले ही रसद सामग्री जुटा लेते हैं। फिलहाल सब्जियों के दाम ही मध्यमवर्गीय परिवार की कमर तोड़ने के लिए काफी है। उधर, बारिश कांवड़ियों को चलने में सहायक होती है। रह-रहकर हो रही बारिश से कांवड़िए जरूर खुश हैं मगर दुकानदार परेशान हैं।
सुल्तानगंज से देवघर तक गंदगी का आलम एक जैसा है। सफाई के नाम पर लूट हुई है। फुटपाथ से लेकर गली कूंचे तक में दुकानें ही दुकानें और कांवड़ियों को लुभाने के लिए लाउडस्पीकर की कर्कश आवाज के बीच हरेक माल 15 रूपए गूंज रहा है। फिल्मी तर्ज पर बाबा वैद्यनाथ के भजन के बजते ऑडियो-वीडियो कैसेट का शोर रात-दिन के फर्क को मिटा रहा है। दुकानदार सड़क किनारे तारपोल लगा अपने सामन बेचने और हिफाजत के लिए बैठे हैं। इनका एक महीने तक घर-द्वार यही है। ये भी कांवड़ियों के रंग में रंग गए हैं।
