गौरैया नाम की घरेलू चिड़िया अब लुप्त सी हो गई है। पहले यह चिड़िया अक्सर घरों में देखी जाती थी और घर के परिवार के सदस्य के रूप में यह रहती थी। घर के परिवार के सदस्यों द्वारा थाली में खाना खाते वक्त गौरैया अक्सर आ जाती थी और खाने की थाली से चावल और रोटी के टुकड़े चुग कर ले जाया करती थी। अब यह दृश्य देखने को नहीं मिलता है। एकाएक गौरैया न जाने कहां खो गई है?
विभिन्न शोधों के जरिए यह तथ्य सामने आया है कि गौरैया के लुप्त होने का प्रमुख कारण पुराने जमाने के मकानों का खत्म होना और अब मकानों का नया डिजाइन है। पहले जमाने में बड़ी-बड़ी हवेलियों और घरों में रोशनदान, आले और लकड़ी के टांड होते थे। कड़ियों के मकान होते थे जिनमें गौरैया अपने घोंसले बनाती थी। समय परिवर्तन के साथ-साथ जैसे-जैसे नए मकान पश्चिमीनुमा बनने शुरू हुए। उससे गौरैया को घरों में घोंसलें बनाने में परेशानी हुई। इसके कारण यह चिड़िया शहरी क्षेत्रों से गायब हो गई। आज गांवों में भी आधुनिक तकनीक से मकान बनने लगे और गांवों का शहरीकरण होने लगा तो वहां से भी इनकी तादाद 60 से 70 फीसद तक घट गई। शोध में एक कारण यह भी आया कि खेतों में जो कीटनाशक दवाइयां छिड़की जाती है, जब गौरैया खेतों में दाना चुगने जाती है तो इन जहरीली कीटनाशक दवाइयों के कारण मौत का शिकार होे जाती हैं। इससे इनकी तादाद एकाएक कम हो गई है।
गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय हरिद्वार का जंतु एवं पर्यावरण विज्ञान विभाग गौरैया को लेकर विशेष शोध कार्य कर रहा है। इस विभाग के प्रोफेसर डा. दिनेश भट्ट ने गौरैया के लुप्त होने पर शोध कार्य किया और गौरैया संरक्षण अभियान चलाया। इसके तहत गांव-गांव में उन्होंने विशेष प्रकार के लकड़ी के घोंसले बनाने का अभियान शुरू किया और इन घोंसलों को शहरों और गांवों के कई घरों में रखा गया। इससे गौरैया को संरक्षण मिल रहा है। प्रोफेसर भट्ट के मुताबिक गौरैया एकमात्र ऐसी चिड़िया है जो साल में दो बार प्रजनन करती है। गौरैया का अस्तित्व आज खतरे में हैं। यह पर्यावरणविदों व पक्षी प्रेमियों के लिए घोर चिंता का विषय है। गौरैया पर सबसे पहले शोध कनाडा में हुआ है।
विदेशी पक्षियों ने भी उत्तराखंड से मुंह मोड़ना शुरू कर दिया है। पहले जहां नवंबर के आखिरी दिनों में विदेशों से बड़ी तादाद में करीब-करीब सभी प्रजातियों के पक्षी उत्तराखंड में आ जाते थे, परंतु पिछले एक दो सालों से विदेशी पक्षियों की प्रजातियों की तादाद भी धीरे-धीरे कम हो रही है। अब रूस से आने वाले प्रवासी पक्षियों की तादाद दो-तीन साल पहले की तुलना में बहुत कम हो गई है जो उत्तराखंड समेत विश्व के बदलते पर्यावरण का सूचक है।
प्रवासी पक्षी उत्तराखंड में गंगा और यमुना नदी में बने टापूओं और मानव निर्मित बांधों की झीलों में हर सर्दियों में अपना डेरा डालते हैं। हरिद्वार में भीमगोड़ा बैराज, चीला में गौरीघाट के पास गंगा नदी में, ऋषिकेश में पशुलोक बैराज में, कनखल में सतीघाट, राजघाट, नया घाट, चंडी देवी पर्वत की तलहटी में नीलधारा में, लक्सर रोड में बाण गंगा तथा देहरादून में यमुना नदी के तटों डाकपत्थर, आसन बैराज वगैरह में अपना आशियाना हर साल सर्दियों में बनाते हैं। पिछले साल गंगा में आई बाढ़ के कारण पशुलोक ऋषिकेश से चीला तक गंगा की राह ही बदल गई। इससे पहले गौरीघाट चीला रेंज में गंगा तट पर बड़ी तादाद में गंगाजल आता था। पौड़ी गढ़वाल में पड़ने वाले चीला रेंज में गंगा के किनारे बने जंगलों में बाढ़ के चलते मीलों तक कटान होने से इस क्षेत्र में गंगा की धारा का प्रवाह ही बदल गया है।
इस क्षेत्र में गंगा की धारा जो गौरीघाट से होकर बहती थी, वह अब अपना मार्ग बदल चुकी है। और गौरी घाट के उत्तर दिशा की तरफ बहने लगी है। इससे प्रवासी पक्षियों को इस गंगा तट पर अपना पुराना ठिकाना ढूंढ़ने में दिक्कतें आने लगी हैं। और उन्हें हर साल पशुलोक से चीला तक गंगा के तट पर नया ठिकाना ढूंढ़ना पड़ता है। इसीलिए अब प्रवासी पक्षी उत्तराखंड के मौसम को अपने मिजाज के अनुरूप नहीं पाते हैं। पर्यावरणविद् प्रोफेसर डॉ दिनेश भट्ट कहते हैं कि साइबेरियाई पक्षियों का इस बार बहुत कम तादाद में आना पर्यावरणविदों के लिए घोर चिंता का विषय है। इस पर शोध करके इसके कारण पता लगाए जा रहे हैं।