खेलों में स्त्री-पुरुष समानता के लिए काम करने वाली बिली जीन किंग ने महिलाओं के लिए सफल लड़ाई लड़ने के बाद पुरुष खिलाड़ियों की समानता के लिए पहल की है। बिली ने कहा ‘महिला खिलाड़ी की तरह पुरुष टेनिस खिलाड़ियों का मैच भी वेस्ट आॅफ थ्री सेट कर देना चाहिए। फिलहाल पुरुष खिलाड़ी पांच सेट का मैच खेलते हैं। इससे पुरुषों को अधिक मेहनत करनी पड़ती है और उनके चोटिल होने की आशंका बढ़ जाती है। 2012 में जोकोविच और नडाल के बीच आॅस्ट्रेलियन ओपन का फाइनल करीब छह घंटे चला था। मैच के बाद दोनों खिलाड़ी ढंग से चल भी नहीं पा रहे थे। यह स्थिति किसी भी खेल के लिए अच्छी नहीं है।’ बिली की यह पहल स्वागतयोग्य है। बिली ने उस आवरण को हटाने का प्रयास किया है, जिसके भीतर दुनिया भर के लाखों पुरुष यह सिद्ध करने की चेष्टा करते हैं कि वे बलशाली हैं। उनका शारीरिक बल उनके पुरुषत्व की पहचान है। संभवतया बिली की इस पहल का कुछ पुरुष खिलाड़ी विरोध करें, यह कह कर कि बिली महिला होने के कारण, पुरुषों के शारिरिक बल का सही आकलन नहीं कर सकती। उल्लेखनीय है कि सत्तर के दशक में बॉबी रिग्स नामक टेनिस खिलाड़ी ने महिलाओं को जब कमतर बताया था तो बिली ने उन्हें मैच खेलने की चुनौती दी थी और बिली ने रिग्स को हराया भी, उसके बाद से बिली जीन को ‘बैटल आॅफ सक्सेस टेनिस मैच’ के लिए जाना जाने लगा।
बीते दशकों से लैंगिक समानता का प्रश्न, विश्व-भर में उठता रहा है। पर लैंगिक समानता का वास्तविक अर्थ महिलाओं के अधिकारों का संघर्ष नहीं है बल्कि पुरुष और स्त्री में बिना किसी भेद के हर क्षेत्र में समानता से है। एक ऐसी समानता, जहां दोनों ही समान पायदान पर खड़े हों, दोनों की ही सामाजिक, आर्थिक तथा राजनैतिक प्रस्थिति समान हो। लिंग (जेंडर) का संबंध महिला-पुरुष के बीच सामाजिक तौर पर होने वाले विभेद से है। स्त्री-पुरुष दोनों ही जैविक संरचना हैं, पर इनकी पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक व राजनैतिक भूमिका का निर्धारण ‘लिंग’ करता है। नारीवादी लेखिका ऐना ओवले के अनुसार ‘जेंडर (लिंग) सामाजिक-सांस्कृतिक संरचना है जो स्त्रीत्व और पुरुषत्व के गुणों को गढ़ने के सामाजिक नियम व कानूनों का निर्धारण करता है।’ उनका मानना था कि जेंडर समाज-निर्मित है।
महिलाओं को अमूमन शारीरिक रूप से कमजोर मानने के पीछे, शारीरिक बल की कमी नहीं है। महिलाओं की मौजूदा असमानता उनकी जैविक असमानता से पैदा नहीं होती है बल्कि यह समाज में उन पर केंद्रित सामाजिक व सांस्कृतिक मूल्यों और संस्थाओं की ही देन है। इसमें तनिक संदेह नहीं कि विश्व-भर में महिलाओं की सामाजिक और आर्थिक प्रस्थिति चिंताजनक है और वे अपने अधिकारों को लेकर संघर्ष कर रही हैं। पर यह विचारणीय प्रश्न है कि लगभग सात दशकों के संघर्ष के बाद भी समानता का वह स्वरूप स्थापित क्यों नहीं हो पाया है, जो कि अपेक्षित था। इसका एक बहुत बड़ा कारण, स्त्री और पुरुष को दो धड़ों में बांट देना है और निरंतर इस तथ्य को स्थापित करने की चेष्टा करना है कि पुरुष असंवेदनशील, क्रूर और हिंसक होते हैं जिससे महिलाओं को समानता प्राप्त नहीं हो रही है। पर समानता स्थापित करने के लिए इस अधूरे सत्य को प्रसारित करना, असमानताओं की जड़ों को और गहरा करना है। महिलाओं की ही भांति, पुरुषों में संवेदनाएं, पीड़ा, ईर्ष्या, त्याग और स्नेह के भाव होते हैं, अंतर सिर्फ इतना है कि पुरुषों को अपनी इन भावनाओं को निंरतर दबाए रखने की सीख दी जाती है।
हम इस सच से अनभिज्ञ हैं कि पुरुष भी दबाव में हैं। इस संबध में बॉलीवुड अभिनेता जस्टिन बाल्डोनी का कथन उल्लेखनीय है कि ‘मुझे भिन्न चरित्र निभाने को मिले, अधिकतर ऐसे पुरुषों की भूमिका निभाई जिनमें मर्दानगी, प्रतिभा और शक्तिकूट-कूट कर भरी है… मैं ताकतवर बनने का नाटक करता रहा जबकि मैं कमजोर महसूस करता था, हर समय सबके लिए साहसी बने रहना अत्यंत थका देता है।… लड़कियां कमजोर होती हैं और लड़के मजबूत। संसार भर में लाखों लड़कों और लड़कियों को अवचेतन ढंग से यही बताया जा रहा है। पर यह गलत है।’ जस्टिन का वक्तव्य समाज की उन परतों को उघाड़ता है जो लैंगिक असमानता की जड़ है।
पुरुष को दंभी, प्रभुत्वशाली होना सिखाया जाता है और अगर वह ऐसा नहीं करता, तो उसे अपने ही वर्ग से अलग कर दिया जाता है। स्त्री और पुरुष होने का भेद बच्चे को जनमते ही समझाया जाता है। एडम्स और वाकर डीन कहते हैं कि लड़कों में हिंसा को लगभग एक सकारात्मक गुण में तब्दील किया जाता है। इस परिवर्तन में उन्हें यह भी सिखाया जाता है कि वे बलशाली हैं, उन्हें शारीरिक और मानसिक पीड़ा नहीं होती। विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट, ‘ग्लोबल अर्ली एडोलेसेंट स्टडी’ में इस बात का खुलासा हुआ है कि दुनिया भर के बच्चों के दिमाग में दस साल से भी कम उम्र में ‘लैंगिक भेद’ भर दिया जाता है। इसी तरह ‘एक्शन एड’ के एक फ्रेंच अध्ययन में यह बात सामने आई कि एनसीईआरटी की किताबों में, कक्षा दो से ही बच्चों को लड़के-लड़की के कथित खांचों में बंद करने लगते हंै। पेशेवर औरतों को नर्स-डॉक्टर या शिक्षिका के ही रूप में दिखाया जाता है। ब्रिटिश पत्रकार एंजेला सैनी की किताब ‘इनफीरियर हाउ साइंस गॉट विमेन रांग’ विज्ञान के कई दावों को विज्ञान के ही जरिए खारिज करती है। यह किताब महिला जीव विज्ञानियों के जरिए से बताती है कई वैज्ञानिक निष्कर्ष, पुरुष विज्ञानियों के अपने स्टीरियोटाइप (रूढ़िवादी धारणा) के कारण निकाले गए। यानी लड़कियों और लड़कों के दिमाग में ऐसा कोई जैविक अंतर नहीं होता जो समाज में उनकी भूमिकाओं को तय करता है। दिमाग से लड़की भी स्वाभाविक रूप से शिकारी हो सकती है और लड़का गृहणी। दरअसल पितृसत्ता एक व्यवस्था है, न कि विचारधारा, और उसे तोड़ने के बारे में हम स्वयं ही नहीं सोचते, और जब तक विचारधारा का यह स्वरूप परिवर्तित नहीं होगा तब तक लैंगिक समानता को स्थापित करना असंभव है।
स्त्री-पुरुष समानता स्थापित करने के लिए हमें उस प्रक्रिया को ही परिवर्तित करना होगा जो शारीरिक भेद को ‘सामाजिक विभेद’ में बदल देती है। इस प्रक्रिया में सबसे अहम भूमिका परिवार और समाज की तो है ही, साथ ही शैक्षणिक संस्थाओं की भूमिका को भी नकारा नहीं जा सकता। स्वीडन के एक स्कूल ने इस दिशा में पहल की है। स्टॉकहोम के इगालिया प्री-स्कूल में ‘लड़का’ और ‘लड़की’ शब्द प्रतिबंधित है। इसके पीछे स्कूल का उद््देश्य है कि बच्चों में लैंगिक भेदभाव न पनपे। स्टॉकहोम के इस स्कूल में ‘हिज’ और ‘हर’ शब्द भी प्रतिबंधित है। स्कूल में बच्चों को एक साथ, एक जैसे खेल खिलाए जाते हैं, ताकि बच्चों में बड़े नजरिए का विकास हो और उनमें सामाजिक या लैंगिक आधार पर किसी भी तरह की असमानता उत्पन्न न हो। यह वह पहल है, जिसे संपूर्ण विश्व की शिक्षा व्यवस्था में अपनाए जाने की आवश्यकता है।
हमारी संपूर्ण व्यवस्था ने स्त्री और पुरुष को विरोधी बना कर खड़ा कर दिया है, जिसके चलते आज भी लैंगिक समानता का संघर्ष अनवरत जारी है। इस व्यवस्था का मकड़जाल इतना गहरा है कि स्वयं को आधुनिक और शिक्षित कहने वाले लोग भी स्वाभाविक रूप से लड़कों और लड़कियों में अंतर करते हैं और उन्हें यह परंपरागत और सही लगता है। इस सोच का विरोध जरूरी है।