क्या यह आश्चर्यजनक नहीं है कि जिस दिशा में आधुनिक विज्ञान केवल पिछली शताब्दी में ही विचार कर सका, उसकी उपस्थिति भारत में सदियों से न केवल चिंतन में थी, बल्कि वह विज्ञान के अनेक क्षेत्रों में ऐतिहासिक योगदान भी कर रही थी। वैचारिकता को व्यावहारिकता में परिवर्तित कर उन्होंने गणित और विज्ञान की ठोस नींव रखी।
पृथ्वी पर मनुष्य का जीवन प्रकृति पर निर्भर है। प्रकृति न केवल मनुष्य और अन्य जीवधारियों की आवश्यकताओं की पूर्ति करती है, बल्कि वह जीवन के आध्यात्मिक तत्व की ओर भी अग्रसर करती है। मानवमात्र को बिना किसी भेदभाव के अनेक जन्मजात वरदान प्रकृति से मिले हैं, जिनमें विचार की शक्ति और संकल्पना की शक्ति सबसे पहले आते हैं। इन दैवीय वरदानों के आधार पर मानव सभ्यताएं विकसित हुर्इं, मनुष्य ने अपने प्रयत्नों से ज्ञान, विज्ञान, मनोविज्ञान, दर्शन, स्वस्थ जीवन जैसे क्षेत्रों में प्रवीणता हासिल की और आगे बढ़ता गया।
बाहरी जगत उसे अपने हर पक्ष को जानने के लिए प्रेरित करता रहा। लेकिन जैसे-जैसे विचार और संकल्पनाओं ने इस जगत को पहचानने में सहायता की, उसी तरह जीवन कहां से क्यों, और जीवन के बाद क्या जैसे प्रश्न भी उभरे। भारत की प्राचीन सभ्यता के विकास की विशेषता रही कि यहां के जिज्ञासुओं, गुरुओं, ऋषियों, मनीषियों और तपस्वियों ने केवल बाहर तो देखा ही, मनुष्य के भीतर-अंतरतम तक को समझने का भी प्रयास किया। उन्होंने उस मूल चेतना को पहचाना जो मनुष्य मात्र की एकता को स्थापित करती थी। ज्ञान और दर्शन में लगातार परिश्रमपूर्वक आगे बढ़ते रहने की प्रवृत्ति तथा हर उपलब्धि को और गहराई तक जानने के लिए अध्ययन, मनन, चिंतन में वे उत्कृष्टता प्राप्त करते रहे। उन्होंने मनुष्य और प्रकृति की परस्परता को जाना और इस पारस्परिकता को बनाए रखने के लिए मनुष्य के उत्तरदायित्व को स्पष्ट रूप से निर्धारित किया।
प्राचीन भारतीय चिंतन, दर्शन और वैज्ञानिक निष्कर्षों का मूल तत्व जो हजारों साल पहले यहां के जीवन का अंग बना था, उसका महत्त्व आज के विश्व में पूरी तरह स्वीकार्य ही नहीं, आवश्यक भी बन गया है। यदि अपरिग्रह की भावना और सदाचरण को स्वीकार किया गया होता तो पर्यावरण प्रदूषण, जलवायु परिवर्तन, बीमारी, भुखमरी जैसे वैश्विक समस्याएं विकराल रूप में मनुष्य के समक्ष उपस्थित नहीं हुई होतीं।
क्या यह सोच वैज्ञानिकता से परिपूर्ण नहीं थी कि प्रकृति के पास संसाधन सीमित हैं, मनुष्य को उनके उपयोग केवल अपनी आवश्यकता पूर्ति के लिए ही करना चाहिए, संग्रहण या दुरुपयोग के लिए नहीं? इसमें निहित गंभीर और गहराई तक पैठा दर्शन और चिंतन केवल पांच कर्मेंद्रियों द्वारा ही प्राप्त अनुभव के आधार पर संभव नहीं था। यह सशक्त और सर्व-उपलब्ध माध्यम रहा है। आधुनिक विज्ञान ने अनेक उपकरणों द्वारा इसके दायरे बढ़ा दिए हैं। लेकिन एक दूसरा माध्यम भी है: सहज बोध! यह केवल मष्तिष्क के उपयोग से भी संभव नहीं था। इसमें मन और मष्तिष्क दोनों का समन्वय आवश्यक था। यही प्राचीन भारतीय चिंतन ने प्राप्त कर लिया था।
प्राचीन काल से जितनी भी सभ्यताएं विकसित हुर्इं, उनकी विकास की गति और प्रारंभ होने का समय सदा एक से नहीं रहे। अनेक विचार, खोजें और प्रकृति के रहस्योदघाटन एक ही समय पर अनेक स्थानों और व्यक्तियों द्वारा भी किए गए। अनेक सभ्यताएं समय के साथ आए झंझावातों के कारण समाप्त हो गर्इं, कुछ इनका प्रतिकार कर सकने में सक्षम रहीं और अपनी निरंतरता तथा प्रगति को सुरक्षित रख सकीं। मशहूर शायर मोहम्मद इकबाल ने भारत की सभ्यता के संदर्भ में इसे कुछ इस तरह देखा: ‘कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी, सदियों रहा है दुश्मन दौरे-जहां हमारा।’ इसमें निहित वैचारिकता की श्रेष्ठता, वैज्ञानिकता का आधार और आध्यात्मिकता का समवाय ही इस सभ्यता को हर प्रकार के झंझावातों में भी सुरक्षित रख पाया। इसकी समावेशी प्रकृति ही इसका संबल रही। इसे ही गांधी जी ने यों कहा था कि ‘मैं अपने घर के दरवाजे और खिड़कियां खुले रखूंगा, ताकि ताजी हवा हर तरफ से आती रहे, लेकिन यह नहीं होने दूंगा कि आंधी में मेरा घर ही उजड़ जाए!’
इस समय चर्चा पूरब और पश्चिम की सभ्यताओं को लेकर ही होती है। भारत की वर्तमान शिक्षा व्यवस्था में स्थिति कुछ इस प्रकार है कि यहां के लोगों को अपनी ज्ञान-परंपरा की केवल सीमित जानकारी है। पश्चिम की सभ्यता को मुख्य रूप से विज्ञान के विकास और उसके वैश्विक प्रभाव के रूप में ही देखा जाता है। ऐसे में प्राचीन भारतीय विचार और चिंतन में विज्ञान और वैज्ञानिकता से भारतीयों का अपरिचय अन-अपेक्षित नहीं कहा जा सकता है। यह भी एक तथ्य है कि भारतीय ज्ञानार्जन और उपयोग की परंपरा को नष्ट करने के प्रयास लगभग सात सौ वर्षों तक होते रहे, इसलिए समय के साथ जो प्रगति होनी चाहिए थी, वह हो ही नहीं सकती थी।
लेकिन प्राचीन भारतीय चिंतन की वैज्ञानिकता को बीसवीं सदी के प्रारंभ से ही विज्ञान के धुरंधरों ने भी स्वीकार करना प्रारंभ कर दिया था। वर्ष 1913 में चिकित्सा विज्ञान के लिए नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने वाले मनोवैज्ञानिक चार्ल्स रोबर्ट रिचेट (1850-1935) ने लिखा था कि मेटाफिजिक्स (तत्व मीमांसा) अभी तक आधिकारिक रूप से विज्ञान नहीं माना जा रहा है, लेकिन उसे मानना होगा। अनेक अवसरों पर यथार्थ हमारे पास केवल पांच इंद्रियों द्वारा ही नहीं पहुंचती है, अन्य ढंग से भी पहुंचती है। सर जेम्स जीन (1877-1946) ने अपने एक भाषण में कहा था कि विज्ञान में लगभग यह सहमति बनी है कि सारा ज्ञान भौतिक तथ्यों, ऐंद्रिक अनुभवों और वास्तविकताओं से आगे उस दिशा में बढ़ रहा है जहां ब्रह्मांड मशीन के स्थान पर एक विचार दिखाई देगा!
क्या यह आश्चर्यजनक नहीं है कि जिस दिशा में आधुनिक विज्ञान केवल पिछली शताब्दी में ही विचार कर सका, उसकी उपस्थिति भारत में न केवल चिंतन में थी, बल्कि वह विज्ञान के अनेक क्षेत्रों में ऐतिहासिक योगदान भी कर रही थी। वैचारिकता को व्यावहारिकता में परिवर्तित कर उन्होंने गणित और विज्ञान की ठोस नींव रखी। ‘टाइम एंड स्पेस’ की समझ के आधार पर उन्होंने भौतिक संरचनाओं (ब्रह्मांड) को प्रस्तुत किया और गणनाएं की, जो आज के विज्ञान पर भी खरी उतरती हैं। जब आर्यभट्ट, ब्रह्मगुप्त, बोधायन, भास्कराचार्य, कणाद, सुश्रुत, चरक, बागभट्ट जैसे मनीषियों के योगदान को समझा और सही ढंग से प्रस्तुत किया जाता है, तब भारत की ज्ञानार्जन परंपरा में वैज्ञानिकता की कमी को केवल एक हास्यास्पद निष्कर्ष ही माना जा सकेगा।
भारतीय चिंतन और दर्शन की ऐतिहासिकता और उसमें निहित वैज्ञानिकता आज सारे विश्व में चर्चित हैं। अभी भी नामचीन वैज्ञानिकों को भी आश्चर्य होता है कि हजारों साल पहले भारत में इतनी गहन ज्ञान परंपरा कैसे विकसित हो सकी, जो भारतीयों को एक ऐसी वैश्विक दृष्टि दे पाई और जिसमें ‘ईश्वर अंश जीव अविनाशी’ जैसा सूक्ष्म दर्शन तथा ‘सर्वे भवंतु सुखिन:’ जैसी व्यवहारिकता विद्यमान थी। भारत के ऋषियों, तपस्वियों और आविष्कारकों ने अवलोकन और चिंतन से न केवल वैचारिक स्तर पर ज्ञान प्राप्त किया, वरन प्रयोगात्मक आधार पर प्राप्त परिणामों को ही मुख्य आधार माना।
स्वतंत्रता के तत्काल बाद विभाजित देश के समक्ष उपस्थित गरीबी और अशिक्षा की महती चुनौती का सामना करते हुए भारत ने विज्ञान और प्रौद्योगिकी को विकास के लिए आवश्यक माना और उसके लिए संस्थान स्थापित किए। इन संस्थानों से पढ़ कर निकले भारत के युवाओं ने विश्व में भारत की प्रतिष्ठा बढ़ाई। हमारी वर्तमान स्कूल और विश्वविद्यालयों की संरचना भले ही एक बाहरी व्यवस्था का प्रत्यारोपण ही रही हो, पर भारत ने विज्ञान, तकनीकी और इक्कीसवीं सदी में इनके साथ-साथ संचार तकनीकी में ऐसा स्थान हासिल कर लिया है जो सारे विश्व के सजग और सतर्क व्यक्तियों को यह मानने के लिए प्रेरित कर सका है कि भारत सदा से व्यावहारिक, जनहितकारी वैज्ञानिक और तार्किक सोच तथा शोध में निष्णात देश रहा है।