बेटियों को उन विषयों को चुनने के लिए प्रेरित किया जाता है या कहना उचित होगा कि दबाव डाला जाता है जिनसे विवाह के बाद उनकी घरेलू जिम्मेदारियां बाधित न हों। कभी आर्थिक तो कभी सामाजिक दुहाई देकर पेशेवर शिक्षा लेने से रोक दिया जाता है, पर हां, बेटे के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी जाती, चाहे वह काबिलियत रखता हो या नहीं।
बीते दिनों विभिन्न राज्यों के दसवीं के परिणाम आए। हमेशा की तरह बेटियों ने अपना परचम लहराया, और ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। साल-दर-साल यही परिणाम आ रहे हैं। विभिन्न व्यवधानों के बावजूद बेटियों की जीवटता की एक बानगी आज से आठ दशक पूर्व की इस खबर से लगाई जा सकती है, ‘अलीगढ़ का समाचार है कि अलीगढ़ मुसलिम गर्ल्स स्कूल और कॉलेज की छात्राएं बी.टी. परीक्षा को छोड़कर शेष सब परीक्षाओं में शत-प्रतिशत उत्तीर्ण हुई हैं। बी.टी. की परीक्षा में भी वे 91 प्रतिशत उत्तीर्ण हुई हैं। छात्रों के और किसी स्कूल और कॉलेज की परीक्षा का परिणाम ऐसा शानदार नहीं रहा है। बहनें परीक्षा के क्षेत्र में भी भाइयों से आगे बढ़ गई हैं, इसके लिए वे बधाई की पात्र हैं।’ आज भी यह तस्वीर बनी हुई है और इसके साथ उनका संघर्ष भी।
क्या यह कल्पना करना सहज है कि विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्रात्मक देश में, बेटियां आठ दिन तक अनशन इसलिए करती हैं कि वे दसवीं के बाद आगे पढ़ सकें। ‘हम पढ़ना चाहती हैं। दसवीं के बाद पढ़ने के लिए हमें अपने गांव से तीन किलोमीटर दूर कंवाली गांव (रेवाड़ी जिला, हरियाणा) के स्कूल जाना पड़ता है। पर यह तीन किलोमीटर का रास्ता हमारे लिए जहन्नुम से कम नहीं है। बाइक पर हेलमेट पहन कर लड़के हमें तंग करते हैं। हमारे पीछे आकर गंदी-गंदी फब्तियां कसते हैं…। स्थिति इतनी बिगड़ गई कि मनचलों के डर के मारे हमारी कई सहेलियों ने स्कूल आना तक छोड़ किया।… परेशान हो हम सभी सहेलियों ने खुद ही संघर्ष का फैसला किया। स्कूल के पास धरने पर बैठ गर्इं। हम बेखौफ होकर पढ़ना चाहती हैं। इसलिए यही मांग रखी कि गांव का स्कूल ही दसवीं से अपग्रेड कर बारहवीं तक कर दिया जाए, ताकि हमें मनचलों से छुटकारा मिल सके।… खुशी है कि आठ दिन के संघर्ष के बाद सरकार ने लिखित में हमारी मांगें मान ली हैं। अब मनचलों की वजह से हमारी पढ़ाई नहीं छूटेगी।’ भूख हड़ताल पर बैठी बच्चियों के शब्द, महिला सशक्तीकरण के हर दावे पर प्रश्नचिह्न लगा देते हैं। बेटियों को शिक्षा और फिर उच्च शिक्षा, से कब और क्यों वंचित कर दिया जाएगा, इस संशय से वे हमेशा ही भयग्रस्त रहती हैं।
टाटा इंस्टीट्यूट आॅफ सोशल साइंसेज की एक रिपोर्ट कहती है कि गांव के स्कूलों में कक्षा एक में दाखिला लेने वाली सौ छात्राओं में से औसतन एक छात्रा दसवीं के बाद की पढ़ाई जारी रखती है। शहरों में प्रति हजार में से चौदह छात्राएं ही ऐसा कर पा रही हैं। बेटियां क्यों स्कूल छोड़ देती हैं? इस विषय पर गैर-सरकारी संगठन ‘प्लान इंडिया’ द्वारा झारखंड, बिहार और उत्तर प्रदेश में किए गए एक शोधपत्र में तथ्य सामने आए हैं कि बीच में पढ़ाई छोड़ चुकी हर पांच लड़कियों में से एक का मानना है कि उनके माता-पिता ही उनकी पढ़ाई में बाधक हैं। समाज में असुरक्षित माहौल तथा विभिन्न कुरीतियों के कारण आठवीं या उससे बड़ी कक्षा की पढ़ाई के लिए उनके परिवार वाले मना करते हैं। करीब पैंतीस प्रतिशत लड़कियों का मानना है कि कम उम्र में शादी होने के कारण बीच में ही पढ़ाई छोड़नी पड़ती है। यह अध्ययन स्पष्ट इंगित करता है कि बेटियों की शिक्षा के मध्य अवरोध उनके परिवार के सदस्यों द्वारा ही खड़ा किया जाता है। चाहे वह खेल का मैदान हो या फिर वैज्ञानिक या इंजीनियर बनने की बात।
गणित और विज्ञान जैसे विषयों में लड़कियों का प्रदर्शन लड़कों से कमतर नहीं रहा है। आंकड़े बताते हैं कि पचहत्तर प्रतिशत लड़कियों को पढ़ने-लिखने और नई चीजें खंगालने में रुचि है, जबकि लड़कों के मामले में यह पचास प्रतिशत है। फिर भी अधिकतर छात्राएं विज्ञान और गणित विषय लेने से कतराती हैं क्योंकि शिक्षा के आरंभ से ही उन्हें परिवार, स्कूल और समाज द्वारा यह विश्वास दिलाया जाता है कि ये विषय उनके लिए बने ही नहीं हैं, उनकी बुद्धि और योग्यता, सामाजिक विज्ञान के अध्ययन तक सीमित है। जबकि विभिन्न शोध यह इंगित करते रहे हैं कि स्त्री की बौद्धिक क्षमता पुरुष से किसी भी रूप में कमतर नहीं है।
दरअसल, पुरुष सत्तात्मक समाज में यह अस्वीकार्य है कि लड़कियां लड़कों के समकक्ष खड़ी हों। हो सकता है यह बात पुरातन कह कर अस्वीकार की जाए, पर अगर ऐसा नहीं है तो मात्र बीस प्रतिशत अभिभावक ही क्यों बेटियों को इंजीनियर, वैज्ञानिक या तकनीशियन बनाने में दिलचस्पी रखते हैं। किसी भी व्यक्ति की क्षमता उसके जन्म से निर्धारित नहीं होती, यह निर्धारित होती है, उसके समाजीकरण से। येन-केन प्रकारेण यह प्रयास युगों से किया जा रहा है कि स्त्री परिवार और समाज द्वारा बांधी गई परिधियों के भीतर ही चले और जब स्त्री-शिक्षा की बात हो तस्वीर के कई पहलू सामने आते हैं। लड़कियों का उच्च शिक्षा से यों दूर रहना भारतीय समाज की दोहरी सोच की परिणति है। बेटों को बेहतर से बेहतर सुविधाएं दी जाती हैं और बेटियों से बिना किसी शिकायत के जीवन जीने की अपेक्षा की जाती है। इस सत्य को अस्वीकार करना संभव नहीं है कि हमारे यहां लड़की के जन्मते ही अभिभावक उसके विवाह के लिए धन एकत्रित करने लगते हैं, और जीवन के प्रारंभ से विवाह होने तक उससे वही सब करने की अपेक्षा की जाती है जिससे उसे एक उच्चपदस्थ जीवन साथी मिले, चाहे वह बाह्य रंग-रूप की सार-संभाल की प्रेरणा हो या फिर शिक्षा।
बेटियों को उन विषयों को चुनने के लिए प्रेरित किया जाता है या कहना उचित होगा कि दबाव डाला जाता है जिससे विवाह के बाद उनकी घरेलू जिम्मेदारियां बाधित न हों। कभी आर्थिक तो कभी सामाजिक दुहाई देकर पेशेवर शिक्षा लेने से रोक दिया जाता है, पर हां बेटे के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी जाती, चाहे वह काबिलियत रखता हो या नहीं। यह समाज बड़ी चतुराई से लड़कियों को वह करने के लिए विवश कर रहा है जो वह चाहता है। 1964-66 के नेशनल कमीशन आॅन एजुकेशन की 1968 की रिपोर्ट की अनुशंसा से पूर्व लड़कियों के लिए गणित और विज्ञान की शिक्षा जरूरी नहीं थी और इस रिपोर्ट की अनुशंसा के बाद भी कार्यरूप में इसे तब्दील होने में लंबा समय लग गया और वास्तविकता के धरातल पर आज बेटियों को बेसिक विषयों को लेने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। फिर, बेटियों का समाजीकरण कुछ इस प्रकार का होता है कि उनके मस्तिष्क में त्याग, समर्पण और दायित्वों का ताना-बाना, महिमामंडित कर बुन दिया जाता है कि वे स्वयं अपनी संपूर्णता परिवार के निहित कर्तव्यों में समझने लगती हैं। यह सम्मोहन की वह प्रक्रिया है जो जीवनपर्यंत उन्हें बांधे रखती है।
पीड़ा का विषय यह है कि बेटियों को लेकर क्यों हम इतने ‘कुटिल’ हैं। ‘कुटिलता’ शब्द चुभन देने वाला तो है, पर सच यही है कि बिना यह जाने कि बेटियां क्या पढ़ना चाहती हैं, क्या बनना चाहती हैं, भारतीय परिवार चाहे कितना भी धनाढ्य और शिक्षित हो उसका अंततोगत्वा लक्ष्य बेटी का ब्याह होता है और यह आंकने के बाद कि तथाकथित विवाह के बाजार में दूल्हे किस ‘पेशे’ की अपेक्षा अपनी पत्नी से कर रहे हैं, बेटियों को उन्हीं मापदंडों के अनुरूप विषय चुनने के लिए ‘विवश’ किया जाता है। अपने माता-पिता से ही जब बेटियां दायरे में जीने की शिक्षा पाती हैं तो उनका उच्च शिक्षा से वंचित रहना स्वाभाविक है, और यह सब तब तक चलता रहेगा जब तक बेटियों और बेटों में भेद की रेखा खींची जाती रहेगी।

