देश में एक बार फिर नौकरशाही की सोच और व्यवहार में तब्दीली की बात उठ रही है। सरकार ने अपने 67 हजार कर्मचारियों के कामकाज की समीक्षा शुरू की है ताकि खराब प्रदर्शन वाले बाबुओं को दंडित किया जा सके और अच्छा काम करने वालों को पुरस्कृत। आज भी नौकरशाही औपनिवेशिक शासनकाल की तरह ही सोचती और व्यवहार करती है। वह अब भी खुद को शासक मानती है। हमारी नौकरशाही का मौजूदा ढांचा और काम करने के उसके तौर-तरीके देश और जनता की जरूरतों से मेल नहीं खाते हैं।
समस्या सिर्फ यह नहीं है कि हमारी अफसरशाही जड़ मानसिकता की शिकार है। असल में, वह कई तरह की समस्याओं की गिरफ्त में है। भारतीय नौकरशाही के बारे में यह आम धारणा है कि बाबुओं की रिश्वतखोरी और आरामतलबी की वजह से कोई भी सरकारी काम समय पर नहीं होता। निचले स्तर की सरकारी नौकरी के बारे में तो पक्की राय यही है कि इसमें लोग आराम फरमाते हैं और बिना घूस लिये कोई काम नहीं करते। जाहिर है, सरकारी तंत्र के इस रवैये ने ही विकास-कार्यों की गति बढ़ने नहीं दी है। अनेक विशेषज्ञ मानते हैं कि भारत अगर भूमंडलीकरणका लाभ ढंग से नहीं उठा पाया है, तो इसकी मुख्य जवाबदेही यहां की नौकरशाही पर आती है। अनेक पूंजी निवेशकों ने नौकरशाही के ढीले-ढाले रवैये की वजह से ही भारत से मुंह मोड़ लिया है। इसलिए नौकरशाही को चुस्त-दुरुस्त बनाना बेहद जरूरी है और यह काम सख्ती से ही होगा।

भारतीय नौकरशाही के बारे में एक शिकायत यह भी है कि उसके पास न तो काम करने की दिशा और इच्छाशक्ति है और न ही वैसा कोई नजरिया, जिसे प्रगतिगामी और लीक से हट कर(आउट आॅफ द बॉक्स) कहा जा सके। इसका कुछ तो दोष सिविल सेवा की परीक्षा प्रणाली और प्रशिक्षण के हिस्से में जाता है लेकिन ज्यादा बड़ी वजह यह है कि अपने स्वार्थ के लिए हमारी नौकरशाही राजनीतिक नेतृत्व के हाथों का खिलौना बनी हुई है। इसी का नतीजा है कि सरकारी प्रशासन और आम जनता में दूरी बनी हुई है और योजनाओं का फायदा जनता को मिलने के बजाय सत्ता के दलालों को मिल रहा है। चूंकि प्रशासन में समाज की कोई भागीदारी नहीं होती, लिहाजा अधिकारी जनता की जरूरतों को भी नहीं समझ पाते हैं। इन समस्याओं की जड़ में नौकरशाही में मौजूद भ्रष्टाचार की लिप्सा भी है। नौकरशाहों के व्यवहार में अराजकता, कामकाज में लापरवाही-सुस्ती और जन सरोकारों को लेकर अनिच्छा का एकमात्र कारण यह नहीं है कि उनके शिक्षण-प्रशिक्षण में कोई कमी है, बल्कि यह भी है कि नौकरशाह (कुछ अपवादों को छोड़ कर) व्यवस्था का फायदा अपने हित में उठाना चाहते हैं।

सरकारी बाबुओं के कामकाज की समीक्षा करने और उसके आधार पर अफसरों-कर्मचारियों को पुरस्कृत या दंडित करने की दिखावे वाली नीति से जुड़ा एक सच यही है कि केंद्र और राज्य सरकारें अपने प्रशासनिक अमले को वोट बैंक की तरह देखने और इसे अनेक तरह से संतुष्ट रखने की कोशिश करती रही हैं। उन्होंने इसका प्रदर्शन सुधारने के बजाय इसका इस्तेमाल अपने राजनीतिक फायदे के लिए किया। हालांकि मोदी सरकार खुद को इस प्रलोभन से बचाने का प्रयास करती नजर आ रही है। इधर, कार्मिक राज्यमंत्री जितेंद्र सिंह ने संकेत दिया है कि सरकार भ्रष्टाचार को लेकर शून्य सहनशीलता (जीरो टॉलरेंस) की नीति अपनाना चाहती है। सरकार यह भी चाहती है कि ईमानदार लोग अपने काम का पुरस्कार पाएं, ताकि उनके उदाहरण बाबुओं को अच्छी नीयत से काम करने की प्रेरणा दे सकें। पर स्पष्ट है कि अफसरशाही के रवैये और मानसिकता में परिवर्तन की कोई राह तभी खुलेगी, जब हमारा राजनीतिक नेतृत्व खुद ईमानदार होगा और वह भ्रष्ट लोगों को किसी भी हालत में प्रश्रय नहीं देता होगा।

सभी जानते हैं कि यह काम आसान नहीं है क्योंकि अभी तो हमारी नौकरशाही निकम्मेपन की मिसाल बनी हुई है। वर्ष 2009 में हांगकांग की पॉलिटिकल ऐंड इकोनॉमिक रिस्क कंसल्टेंसी ने एशिया की बारह सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं की नौकरशाही को लेकर जो सर्वे किया था, उसमें भारतीय बाबू-अफसर ही देश के विकास में सबसे बड़े बाधक बताए गए थे। इसी दौरान विश्व आर्थिक फोरम ने 49 देशों के अफसरों के कामकाज का एक सर्वेक्षण किया था, उसमें भी भारतीय नौकरशाही को काफी नीचे (44 वां) स्थान दिया गया था। यह स्थिति अब भी नहीं सुधरी है। वैसे तो अतीत में कई मौकों पर सरकारों ने नौकरशाही को कसने के छिटपुट उपाय किए हैं, पर ऐसा कई बार हुआ है कि भ्रष्ट बाबुओं के खिलाफ जो मामले शुरू हुए, उनमें से ज्यादातर अपने अंजाम तक नहीं पहुंच पाए। यह कोशिश की गई कि या तो जांच पूरी ही न हो सके या फिर वह दिशाहीन हो जाए।

इससे जुड़ी समस्या का एक पहलू यह भी है कि हमारे देश में भ्रष्टाचार का मामला सामने आते ही उसे लेकर सारा हंगामा राजनेताओं पर केंद्रित कर दिया जाता है। ऐसी स्थिति में सरकार या राजनीतिक पार्टियां नेताओं को पद छोड़ने जैसे प्रतीकात्मक दंड देकर लोगों का आक्रोश शांत कर देती हैं। इस तरह मामला ही दब जाता है और उसमें शामिल नौकरशाह भी निशाने पर आने से बच जाते हैं। इससे यह आम धारणा बन गई है कि राजनीतिक नेतृत्व अपने हित के लिए नौकरशाही का इस्तेमाल करता है और वही अफसरों को भ्रष्ट बनाता है। इस तथ्य में अधूरा सच है।

असल में जिस तरह राजनीतिक नेतृत्व ऊंचे पदों पर बैठे नौकरशाहों का अपने लिए इस्तेमाल करता है, उसी तरह नौकरशाही भी अपने लाभ के लिए राजनीतिक संरक्षण हासिल करती है। यह बात इससे साबित होती है कि यदि हमारी नौकरशाही ने पूरी ईमानदारी से और तटस्थ होकर भ्रष्टाचार का विरोध किया होता, तो देश में भ्रष्टाचार का यह रूप नहीं दिखता, जैसा कि आज है। यह नौकरशाही के ही भ्रष्टाचार का नतीजा है कि आज हर योजना में भ्रष्टाचार मौजूद है। कॉमनवेल्थ गेम्स के आयोजन में गड़बड़ी का मामला हो या आदर्श हाउसिंग सोसाइटी घोटाला, 2-जी घोटाला हो या कोयला घोटाला- सभी में ऊंचे ओहदों पर बैठे अफसरों की संदेहास्पद भूमिका रही है।

बेशक आज भारतीय नौकरशाही में तब्दीली की कोशिशें की जा रही हैं, पर यह भी सच है कि अब से पहले और आजादी के बाद ज्यादातर सरकारों ने सिविल प्रशासन के ढांचे में बुनियादी बदलाव का साहस नहीं दिखाया। इस बारे में जो एकाध कोशिशें हुर्इं भी तो नौकरशाहों की मजबूत लॉबी ने बदलाव के प्रयासों को पलीता लगाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। इसी का नतीजा है कि सरकारी प्रशासन और आम जनता में दूरी बनी हुई है और योजनाओं का फायदा जनता को मिलने के बजाय दलालों को मिल रहा है।
चूंकि प्रशासन में समाज की कोई भागीदारी नहीं होती, लिहाजा अधिकारी जनता की जरूरतों को भी नहीं समझ पाते हैं। एक अन्य समस्या यह है कि एक ही तरह की परीक्षा पास करके और एक ही तरह का प्रशिक्षण पाकर जनता के बीच जाने वाले एक ही तरह के अधिकारियों से अलग-अलग क्षेत्रों में काम लिया जाता है, जो पूरी तरह अव्यावहारिक है। इस कारण भी किसी प्रयास का उचित फल नहीं मिल पाता है। इसीलिए आज अलग-अलग क्षेत्रों में काम रहे आइएएस अधिकारियों को उनके क्षेत्र और विशेषज्ञता से जुड़ा प्रशिक्षण देने की जरूरत है। मौजूदा समय की जरूरतों के मद््देनजर यदि अलग-अलग क्षेत्रों की जिम्मेदारी उस क्षेत्र विशेष के जानकार अधिकारी को सौंपी जाएगी तो निश्चित ही कार्य की गुणवत्ता में सुधार आएगा।