असम में भाजपा और उसके सहयोगी दलों को इस बार ऐतिहासिक जनादेश मिला है और सर्वानंद सोनोवाल ने मुख्यमंत्री के रूप में काम करना शुरू कर दिया है। इस जीत को लेकर भाजपा समर्थकों में जश्न का माहौल बना हुआ है। इस सत्ता परिवर्तन को कांग्रेस के पंद्रह साल के कुशासन, अहंकार और भ्रष्टाचार का परिणाम बताया जा रहा है। इस बार विधानसभा चुनाव के दौरान भाजपा ने कांग्रेस के कुशासन के अलावा बांग्लादेशियों की घुसपैठको अहम मुद््दा बनाया था। अब देखना यह है कि इस मसले से सोनोवाल सरकार किस तरह निपटती है।

मीडिया में या नेताओं के भाषणों में बांग्लादेशियों की घुसपैठ के मसले को जिस तरह प्रचारित किया जाता रहा है,असल में यह मसला उससे कहीं अधिक जटिल है। इस मसले को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में समझने की कोशिश करनी होगी। सौ साल पहले ब्रिटिश शासकों ने वित्तीय घाटे को कम करने और भूमि राजस्व बढ़ाने के लिए पूर्व बंगाल के किसानों को ‘ऊसर भूमि’ और ‘सुरक्षित वन क्षेत्र’ के आसपास बसाना शुरू किया और इसके साथ ही ‘घुसपैठ’ की कहानी शुरू हुई। यह ‘ऊसर भूमि’ असल में असम के जनजातीय समुदायों की थी। उस जमाने में कृषिभूमि पर असम में किसी का निजी अधिकार नहीं होता था। तब जनजातीय लोग अपनी वर्तमान की जरूरतों की पूर्ति करने के लिए एक स्थान पर फसल उपजाते थे और फिर अगली बार किसी दूसरे स्थान पर फसल उपजाने के लिए चले जाते थे। अंग्रेजों की कर लगाने की नीति इस तरह की खेती करने की इजाजत नहीं देती थी। अंग्रेजों ने भूमि को माप कर कर वसूलने की व्यवस्था की और इस तरह जो सामुदायिक ‘ऊसर भूमि’ थी, उस पर ब्रिटिश सरकार का अधिकार हो गया। यह वही ‘ऊसर भूमि’ थी जहां आज के बांग्लाभाषी मुसलमानों के पूर्वज आकर बसे थे। इसके अलावा वे ब्रह्मपुत्र के किनारे ‘चर अंचल’ में भी बसाए गए थे।

मौजूदा समय में इस तरह की धारणा फैलती गई है कि तेजी से राज्य की आबादी की संरचना बदल रही है और आने वाले समय में असमिया लोग अपनी ही भूमि में अल्पसंख्यक बन जाएंगे और उनकी संस्कृति खतरे में पड़ जाएगी। इस खतरे के पीछे यही तर्क लोकप्रिय है कि ‘बांग्लादेशी घुसपैठिए’ तेजी से बच्चे पैदा कर रहे हैं। वे लोग मेहनत-मजूरी के सारे काम स्थानीय लोगों से छीन रहे हैं और चाय बागान में भी काम कर रहे हैं। इस तरह भारतीय करदाताओं के पैसे से बांग्लादेशी घुसपैठिए अपना जीवन यापन कर रहे हैं। यह धारणा इस कदर लोगों के जेहन में बस चुकी है कि चुनाव के समय राजनीतिक पार्टियां अवैध घुसपैठ के मसले को हल करने का वादा करते हुए मतदाताओं को लुभाने की कोशिश करती हैं। तीस साल पहले जो असम समझौता हुआ था, उसमें भी इस मसले को हल करने की बात कही गई थी। लेकिन तीन दशक गुजर जाने पर भी यह मसला अपनी जगह कायम है।

इस बात में कोई शक नहीं कि सदियों से दुनिया भर में जीविका की खोज में लोगों का प्रवजन होता रहा है। मसलन, अमेरिका में लातीनी अमेरिकी देशों से काफी बड़ी संख्या में आव्रजन हुआ है। आज अमेरिका ऐसे आव्रजन से परेशानी महसूस कर रहा है और अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव के एक संभावित उम्मीदवार डोनाल्ड ट्रंप ने इस असंतोष को खूब हवा भी दी है। पर अमेरिका आगे लिए अपने आव्रजन कानून भले और सख्त कर दे, एक-दो पीढ़ी पहले इस तरह आकर बस गए लोगों को निकाल बाहर कर सकता है? लगता है ट्रंप बस एक भावनात्मक कार्ड खेल रहे हैं।

अगर मान लिया जाए आज की तारीख तक असम में बांग्लादेशियों की घुसपैठ लगातार होती रही है तो फिर सीमावर्ती धुबरी जैसे जिलों की आबादी 1971 के बाद बढ़ जानी चाहिए थी। सच्चाई यह है कि वर्ष 1971 के बाद असम में जनसंख्या वृद्धि दर विस्फोटक होने की जगह राष्ट्रीय औसत दर से कम रही है और 1950 के दशक की वृद्धि दर 34.98 प्रतिशत से घटती गई है। मुसलिम बहुल आबादी वाले धुबरी में वर्ष 1971-1991, 1991-2001 और 2001-2011 के दौरान जनसंख्या वृद्धि की दर क्रमश: 45.65 प्रतिशत, 22.97 प्रतिशत और 24.40 प्रतिशत रही। इसके विपरीत धेमाजी, कार्बी आंगलोंग आदि जिलों में जनसंख्या वृद्धि दर अधिक रही है, जहां बांग्लाभाषी मुसलमानों की तादाद अधिक नहीं है। धेमाजी जिले में यह वृद्धि दर उसी अवधि में क्रमश: 107.5, 19.45 और 20.30 प्रतिशत रही है। कार्बी आंगलोंग में यह वृद्धि दर क्रमश: 74 .72, 22.72 और 18.69 प्रतिशत रही है। इस तरह अनवरत घुसपैठ के मिथक की सच्चाई अपने आप उजागर हो जाती है।

यह भी सच है कि नगांव, मोरीगांव आदि मध्य असम के जिलों में बांग्लाभाषी मुसलमानों की आबादी बढ़ी है, लेकिन ये जिले बांग्लादेश की सीमा के पास स्थित नहीं हैं न ही इन जिलों में कोई औद्योगिक विकास नजर आता है, जिसके चलते जीविका ढंूढ़ने बांग्लादेशी घुसपैठिए इन जिलों की तरफ आकर्षित होंगे। जीविका के लिए अवैध घुसपैठिए उत्तर और दक्षिण भारत जाना क्यों नहीं पसंद करेंगे, जहां रोजगार के बेहतर विकल्प मौजूद हैं? मध्य असम में अगर बांग्लाभाषी मुसलमानों की आबादी बढ़ी है तो इसकी मुख्य वजह गरीबी, अशिक्षा और परिवार नियोजन से दूरी रही है।

पूरे परिप्रेक्ष्य की पड़ताल करने पर क्या ऐसा नहीं लगता कि बांग्लादेशियों की घुसपैठ के मसले को जान-बूझ कर अतिशयोक्तिपूर्ण अंदाज में पेश किया जाता रहा है और कुछ निहित स्वार्थों की पूर्ति की जाती रही है? स्पष्ट है कि आज तक जो भी घुसपैठ होती रही है (अगर हुई है तो) उसके पीछे एक दूसरे से गहराई के साथ जुड़े समुदायों के खेतों और गांवों के बीच औपनिवेशिक विभाजन की जटिलता अहम वजह रही है। इन लोगों के बीच आपसी संबंध बांग्लादेश के निर्माण से पहले से ही रहे हैं। असल में आबादी वृद्धि की जो धारणा प्रचारित होती या की जाती रही है वह निर्धारित तारीख से पहले के आंकड़ों पर आधारित हो सकती है। असम समझौते में स्पष्ट रूप से इस बात का उल्लेख किया गया था कि जो लोग 1971 के बाद असम में आए हैं उन्हें ही अवैध घुसपैठिया माना जाएगा। विडंबना यह है कि आज के समय में किसी भी बांग्लाभाषी मुसलिम पुरुष या स्त्री को अपमानजनक ढंग से ‘बांग्लादेशी’ कह कर संबोधित कर दिया जाता है। समाज के निचले तबके के लोगों के साथ इस तरह का भेदभाव अधिक देखने को मिलता है। 1983 में हुए नेल्ली जनसंहार से लेकर हाल के बोडो-मुसलिम संघर्ष तक, तीस सालों में ऐसे हजारों बांग्लाभाषी मुसलमान मारे जा चुके हैं।

पिछले एक साल से असम में राष्ट्रीय नागरिक पंजीयन को अद्यतन (अपडेट) करने का काम चल रहा है और इसके जरिये अवैध घुसपैठियों की शिनाख्त करने की बात कही जा रही है। निचले स्तर पर नौकरशाही के भ्रष्टाचार और अकर्मण्यता के साथ ऐसे अवैध घुसपैठियों की कितनी संख्या सामने आएगी यह तो समय ही बताएगा, लेकिन अहम सवाल यह है कि शिनाख्त किए जाने के बाद ‘अवैध बांग्लादेशियों’ के साथ कैसा बर्ताव किया जाएगा? अगर उनकी बहुप्रचारित तादाद भारत में पांच करोड़ सामने आ गई तो फिर भारत सरकार क्या करेगी? असम सरकार क्या करेगी? दूसरे राज्य क्या करेंगे? आखिरी बार भारत को इस तरह की समस्या का उस समय सामना करना पड़ा था जब उन्नीस सौ बासठ की लड़ाई के बाद उसने चीनी मूल के हजारों लोगों को वापस चीन भेजने की कोशिश की थी और आरंभ में चीन ने उन्हें स्वीकार करने से मना कर दिया था।

भारत उम्मीद नहीं कर सकता कि बांग्लादेश ‘घुसपैठियों’ को वापस लेने के लिए तैयार हो जाएगा। उसे धमका कर इस बात के लिए राजी कर पाना भी मुमकिन नहीं होगा। चूंकि ऐसा करना उसकी संप्रभुता को चुनौती देना और पंचशील के सिद्धांतों के विपरीत होगा। जिस तरह से नेपाल, श्रीलंका, मालदीव, म्यांमा जैसे पड़ोसी देशों के साथ भारत के कूटनीतिक रिश्ते सहज नहीं नजर आ रहे हैं, वैसी स्थिति में भारत एक और पड़ोसी के साथ रिश्ते को खराब नहीं करना चाहेगा। वैसे भी चीन इस क्षेत्र में अपने प्रभाव का विस्तार करते हुए ‘आर्थिक गलियारे’ का निर्माण करने में जुटा हुआ है।

जहां तक नजदीकियों की बात है, हाल के दिनों में भारत और बांग्लादेश के बीच घनिष्ठ संबंध कायम हुए हैं। सीमा पार रेल सेवा शुरू करने पर बातचीत हुई है। सामानों को सीमा-पार पहुंचाने पर सहमति हुई है, जो पूर्वोत्तर के लोगों और यहां के बाजार के लिए अच्छी खबर है।

द्विपक्षीय संबंधों के साथ ही मौजूदा सरकार की ‘एक्ट ईस्ट पॉलिसी’ भी है जिसके तहत पूर्वोत्तर की अर्थव्यवस्था का कायाकल्प करने की बात कही गई है। सीमा-पार व्यापार को बढ़ावा देने की जगह सीमा को सील कर देना और व्यापार को हतोत्साहित करना आत्मघाती कदम साबित हो सकता है। भारतीय जनता पार्टी ने अपनी चुनावी रैलियों में जिस ‘विकास’ का वादा किया, वह तभी मुमकिन होगा जब इस क्षेत्र में निवेश बढ़ेगा। एक्ट ईस्ट पॉलिसी के जरिए बहुराष्ट्रीय कंपनियों को पूर्वोत्तर में पैर जमाने का लुभावना मौका दिया गया है, जहां से वे समूचे दक्षिण पूर्व एशिया के बाजार में अपना विस्तार कर सकती हैं। ऐसे में लगता नहीं कि अवैध बांग्लादेशियों को वापस लेने की मांग करते हुए भारत बांग्लादेश के साथ अपने रिश्ते को बिगाड़ने का जोखिम उठाएगा।