हाल ही में देश की वाणिज्यिक राजधानी मुंबई एक बार फिर प्रलंयकारी बारिश के आगे ठहर गई। मौसम विभाग के मुताबिक 28 से 29 अगस्त के बीच चौबीस घंटों में ही मुंबई में 102 मिलीमीटर बारिश दर्ज की गई। तेज बारिश, सड़कों और रेलमार्गों पर जलभराव के बीच पूरी मुंबई पानी-पानी हो गई। लोकल ट्रेनें तकरीबन ठप रहीं, विमान सेवाओं पर काफी बुरा असर पड़ा। शहर के कई इलाकों की बिजली आपूर्ति भी बंद हो गई। हालात की विकटता के मद्देनजर राज्य सरकार ने स्कूल-कॉलेजों को बंद कर दिया। कोई शक नहीं कि प्रलंयकारी बारिश से जैसे हालात मुंबई में बने, उसने पूरे देश को चिंतित कर दिया। दो साल पहले कुछ ऐसी ही स्थितियां देश के दक्षिणी राज्यों तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश के कुछ इलाकों में पैदा हुई थीं, जब भीषण बारिश ने जल-प्रलय जैसी स्थितियां बना दी थीं। अहम सवाल यह है कि आम जनजीवन बुरी तरह ठप्प कर देने वाली और धन-जन हानि करने वाली बेतहाशा बारिश के पीछे कोई स्थानीय कारण होते हैं या फिर वजहें वही हैं, जिनका जिक्र पेरिस और उससे पहले तमाम जलवायु परिवर्तन सम्मेलनों में किया जा चुका है? यानी ग्लोबल वॉर्मिंग!

हाल के दशकों में जरूरत से ज्यादा और बेमौसमी बारिशों का रिकॉर्ड देखें तो करीब बारह साल पहले मुंबई में हुई भारी बारिश की याद आती है। उस बारिश ने भी लोगों का कहीं आना-जाना मुश्किल कर दिया था और हजार से अधिक जानें उस दौरान गई थीं। हालांकि बारिश के कारण हुए नुकसान के लिए मुंबई महानगर पालिका की बदइंतजामी को भी जिम्मेदार ठहराया गया था, लेकिन मुंबई से पहले और उसके बाद कई दूसरे स्थानों पर अत्यधिक बारिश (एक्सेस रेन) के नजारों से साफ हो गया कि मामला सिर्फ बदइंतजामी का नहीं है। 2014 में असम के गुवाहाटी और चार अन्य जिलों में पंद्रह घंटे की तेज बारिश में ऐसा जलभराव हुआ कि पंद्रह लोगों की मौत हो गई थी। इससे एक साल पहले 16-17 जून 2013 को उत्तराखंड की केदार घाटी में अचानक हुई भारी वर्षा ने भयानक ताडंव किया था और रुद्रप्रयाग, चमोली, उत्तरकाशी और पिथौरागढ़ में सड़कें, पुल और गांव के गांव बह गए। सरकारी आंकड़ों में मृतकों का आंकड़ा पांच हजार से ज्यादा बताया गया। 2010 में लेह (लद्दाख) में भी 6 अगस्त को ऐसी बारिश हुई कि वहां के इकहत्तर गांव-कस्बे बह गए और 255 लोगों की मौत दर्ज की गई।

साल भर पहले मार्च-अप्रैल, 2016 में उत्तरी और मध्य भारत में हुई बेमौसम बारिश ने शहरों से लेकर गांव-देहात में तबाही मचाई थी। भारत से बाहर इससे एक साल पहले जॉर्जिया की राजधानी तिब्लिसी में 13 जून, 2015 की रात हुई मूसलाधार बारिश के बाद इंसान तो क्या चिड़ियाघर के जंगली जानवर तक जान बचाने के लिए सड़कों पर भागते नजर आए। मनीला, इटली, चीन और हाल में रेगिस्तानी सऊदी अरब और कतर तक में कुछ घंटों की बारिश ने दिखा दिया है कि मौसम के तेवर कितने तीखे हो सकते हैं। इन सारे उदाहरणों और तथ्यों का मकसद उन कारणों की पड़ताल की मांग करना है कि आखिर कुछ ही घंटों या दिनों में इतनी ज्यादा बारिश क्यों होने लगी है! दौड़ते-भागते महानगरों के लोग ऐसे ठहराव के आदी नहीं हैं। कोई नहीं चाहता कि कुछ ही दिनों में ऐसी बारिश हो जाए कि स्कूल-कॉलेज बंद करने पड़ें, परीक्षाएं स्थगित करनी पड़ीं और रेल-सड़क की आवाजाही पर विराम लग जाए।

असल में, मौसम ने पिछले कुछ सालों से हमें चौंकाने का सिलसिला कायम रखा है। अतिवृष्टि और अनावृष्टि तो जब-तब मुसीबत के रूप में धमकती ही रहती थीं, बारिश का बदलता चक्र अब अलग तरह की परेशानियां ला रहा है। पिछले साल मार्च-अप्रैल, 2016 को देश के बड़े हिस्से में बेहद तेज और बारिश के अत्यधिक लंबे सिलसिले को मामूली नहीं माना गया था। इसके बारे में मौसम विज्ञानियों ने जिस पश्चिमी विक्षोभ का हवाला दिया था, बताते हैं कि उसकी व्यापकता (फैलाव) इतनी थी कि उसने बंगाल की खाड़ी और अरब सागर, यानी देश के पूर्वी और पश्चिमी दोनों छोरों से नमी उठाई थी। इसी के फलस्वरूप इतनी अधिक बारिश हुई।देश-दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में भारी बारिश पैदा करने वाली घटनाओं से एक बात साफ है कि मौसम की बदलती चाल हमें जो संदेश दे रही है, वह काफी गंभीर है। इसे समझने में जिस तरह की सतर्कता और तत्परता हमें दिखानी चाहिए, वह हम नहीं दिखा पा रहे। यों मौसम विभाग मानसून, सूखे या सर्दी-गरमी के इन संकेतों के जरिए देश और जनता को सतर्क करता रहा है। लेकिन आधी-अधूरी भविष्यवाणियों और मौसम की अप्रत्याशित करवटों से बचाने वाले इंतजामों की कमियों के कारण मौसमी मुसीबतें हम पर कहर बन कर टूटने लगी हैं। अब सिर्फ यह जरूरी नहीं रह गया है कि मौसम विभाग हमें बताए कि तापमान कितने डिग्री के बीच रहेगा या आसमान में बादल रहेंगे या नहीं, बल्कि उसे इसके प्रति भी समय रहते सचेत करना होगा कि मौसम कब और कैसी करवट लेगा और उससे बचाव के लिए हमें क्या-क्या इंतजाम करने होंगे। अन्यथा केदारनाथ जैसे दुर्गम इलाकों में अत्यधिक बारिश की भविष्यवाणी कुछ घंटे पहले करने मात्र से समस्या हल नहीं होगी।

यह ध्यान रखना होगा कि पिछले सात-आठ वर्षों में मौसम में अचानक भारी उथल-पुथल पूरे दक्षिण एशियाई क्षेत्र में दर्ज की गई है। कहीं भारी बारिश से बाढ़, सूखे और भारी बर्फबारी के हालात पैदा हो रहे हैं तो कहीं तूफान-चक्रवात बड़े पैमाने पर तबाही मचा रहे हैं। 2013 में इस इलाके में आए तीन लगातार तूफानों से भारी खलबली मच गई थी। पहला तूफान था भारत के दक्षिण-पूर्वी तट पर खौफनाक ढंग से आगे बढ़ा ‘फेलिन’, जिससे होने वाले नुकसान को हमारे आपदा प्रबंधन के आधुनिक तौर-तरीकों ने बेहतरीन ढंग से थाम लिया था। दूसरा, फिलीपींस के समुद्र्री तटों पर काफी तेजी से आया तूफान ‘नारी’ था, जिसने एक झटके में दर्जन भर जानें ले लीं और इस दौरान करीब इक्कीस लाख लोगों को बेघरबार होना पड़ा। तीसरा तूफान ‘वीपॉ’ जापान के उत्तरी तट पर आया और इसने भी वहां के जनजीवन को अस्त-व्यस्त कर दिया था। आपस में जुड़े इलाके में एक साथ तीन समुद्री तूफानों-चक्रवातों ने मौसम विज्ञानियों को भी चौंका दिया था और उन्हें इसमें किसी बड़े मौसमी बदलाव का आहट मिली थी।

किसी भी देश की खेती-बाड़ी, रहन-सहन, उद्योग-धंधे काफी हद तक मौसम पर ही निर्भर करते हैं। भारत के प्रसंग में तो यह बात और भी गौरतलब है। हमारे अर्थशास्त्री यही मानते हैं कि मानसून की चाल में जरा-सा भी उथल-पुथल देश की अर्थव्यवस्था को चौपट कर सकता है। दरअसल, मौसम की बड़ी तब्दीलियों को दर्ज करने की जिम्मेदारी सिर्फ मौसम विभाग पर नहीं छोड़ी जानी चाहिए, बल्कि इसमें इसरो जैसी संस्थाओं के वैज्ञानिकों को भी अपना योगदान देना चाहिए। इसी से मौसम के अनुमान ज्यादा धारदार बन सकेंगे और आपदाओं के असर को कुछ कम किया जा सकेगा। यही नहीं, इस बारे में सभी दक्षिण-एशियाई देशों को आपस में कोई तालमेल बनाना होगा। उन्हें यह स्वीकार करना होगा कि कोई बड़ा मौसमी बदलाव अगर पड़ोसी मुल्क के संदर्भ में हो रहा है, तो वे भी उसके असर से अछूते नहीं रह सकेंगे। अगर चीन-तिब्बत में भारी बर्फबारी होगी, तो ब्रह्मपुत्र का पानी भारत में तबाही मचाएगा।

लेकिन सबसे ज्यादा जरूरी है कि मौसम पर असर डालने वाली प्रमुख घटना जलवायु परिवर्तन के बारे में सचेत हुआ जाए। आज यह सोचने की जरूरत है कि उत्तराखंड, जम्मू-कश्मीर, पंजाब, मध्यप्रदेश से लेकर महाराष्ट्र-तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश तक को प्रभावित करने वाले मौसमी बदलाव कहीं जलवायु परिवर्तन की समस्या की देन तो नहीं हैं! दुनिया के सामने भारत को यह सवाल पुरजोर ढंग से उठाना चाहिए कि जलवायु परिवर्तन के कारण जो परेशानियां वह झेल रहा है, वे सिर्फ उसकी अपनी समस्याएं नहीं हैं। पूरा विश्व इनसे प्रभावित है। लिहाजा, इससे निपटने के साझा उपायों पर काम होना चाहिए, अन्यथा प्रकृति की लगातार मार विकास के हमारे सारे इंतजामों को बौना साबित करती रहेगी।