बच्चों के लिए पढ़ाई के साथ-साथ खेल भी महत्त्वपूर्ण है। पढ़ाई से जहां वे बौद्धिक रूप से विकसित होते हैं, वहीं खेल से बौद्धिक और शारीरिक रूप से मजबूत होते हैं। एक तरह से देखा जाए तो पढ़ाई अगर सैद्धांतिक विषय है तो खेल प्रायोगिक विषय। खेल उन्हें निर्णय लेने की क्षमता में मदद पहुंचाता है। बच्चे खेलते हुए सामाजिक होने की संपूर्ण प्रक्रिया से गुजरते हैं। खेल दो तरह के होते हैं- इनडोर और आउटडोर। दोनों ही खेल बच्चों के लिए उपयोगी हैं। इधर कुछ समय से हमारे समाज में दोनों तरह के खेलों का अस्तित्व गंभीर रूप से खतरे में है। ऐसा हमारी धारणाओं के कारण भी है। खेलों को हमने ज्यादा महत्त्व नहीं दिया है। अधिकतर अभिभावक बच्चों को सिर्फ पढ़ाई के लिए कहते हैं। बच्चे भी इस स्थिति में पढ़ाई को बोझ समझ बैठते हैं। परिणाम यह होता है कि बच्चे पढ़ाई से उदासीन हो जाते हैं। अगर वे माता-पिता के डर से पढ़ाई करने को तैयार भी होते हैं, तो अनिच्छा के कारण वे बेहतर नहीं कर पाते। अभिभावकों को कम ही यह कहते सुना जाता है कि जाओ बेटे, थोड़ा खेल लो। बच्चे भी अब खेल को कम महत्त्व देने लगे हैं। उनके खेलने की आदतें खत्म होती जा रही हैं। अब वे मोबाइल, वीडियो गेम, आॅनलाइन गेमिंग में मशगूल हो रहे हैं। यह स्थिति गंभीर होती जा रही है।

यह सामाजिक धारणा है कि खेल बच्चों को जीवन में आगे बढ़ने से रोकते हैं, जबकि पढ़ाई जरूरी है। आखिर ऐसा क्यों है? हम उस समाज में हैं, जहां बच्चों के संपूर्ण सर्वांगीण विकास के लिए हम वे सभी सुविधाएं देने को तैयार हैं, जो उनके लिए आवश्यक होती हैं। फिर यह कैसे भूला जा सकता है कि बच्चों के विकास में खेल का योगदान भी कम नहीं है?
किंडरगार्टेन स्कूल की परिकल्पना यह सिद्ध करती है कि बच्चों में खेल-खेल के द्वारा मानसिक समझ को तेजी से विकसित किया जा सकता है। आज कई ऐसे विद्यालय हैं, जो खेल को कक्षा में ही प्रमोट कर रहे हैं। हमारे देश में ‘आंगनबाड़ी’ की व्यवस्था भी इसी तर्ज पर छोटे बच्चों के लिए की गई है। बच्चों के विकास को नजदीकी से देखने वाले विशेषज्ञ इस बात से सहमत हैं कि खेल उनके मन को स्वस्थ रखने का टॉनिक है। हम वैश्विक स्तर पर खेल के संपूर्ण मानदंड में पिछड़े हैं। यह हमारी मानसिकता के कारण है। विश्व के लगभग सभी बड़े और विकसित देश बच्चों को खेल के लिए आगे कर रहे हंै। ऐसे पाठ्यक्रम संचालित किए जा रहे हैं, जिनमें खेल की अनिवार्यता भी हो। हमारे देश में किसी खास खेल के लिए अगर कोचिंग की तलाश की जाए तो दूर-दूर तक देखने को नहीं को मिलेगी। मगर पढ़ाई के लिए गली-गली, मुहल्ले-मुहल्ले, शहर-शहर कई कोचिंग, स्कूल और अन्य शिक्षण संस्थान थोक के भाव मिल जाएंगे। पढ़ाने के लिए तो लाखों शिक्षक तैयार हैं, पर खेल प्रशिक्षक ढूंढ़े नहीं मिलता।

खेल को बढ़ावा देने के लिए हमें पहले अपने बच्चों को इसके लिए विभिन्न स्तरों पर तैयार करना होगा। उन्हें बार-बार खेलने को प्रेरित करना होगा। छोटी-छोटी आबादी पर खेल के लिए आधारभूत सुविधाओं का निर्माण करना होगा। अगर बच्चे खेलने की जिद करें, तो उसे समझना होगा। यह वक्त है सोचने का कि हम खेलों को किन कारणों से महत्त्व नहीं दे पा रहे हैं। खेलों में हमारी रुचि खूब है, लेकिन अपने परिवार के सदस्यों को खिलाड़ी बनाने के प्रश्न को गोल-गोल घुमाना शुरू कर देते हैं। आज खेल में कई संभावनाएं हैं। मगर खेल को लेकर हमारे संस्थान उदासीन हैं। विभिन्न खेल स्पर्धाओं में पदक तालिका से देश में खेल की दुर्दशा का आकलन किया जा सकता है। आज खेलों में पदकों की संख्या देश की शक्ति का भी प्रतिबिंब बनती जा रही है। हम और हमारी व्यवस्था ने पूरी तरह शिक्षा को पढ़ाई तक सीमित कर रखा है। यहां अकादमी का सामान्य अर्थ शिक्षण से लिया जाता है। व्यवहारगत यह भी ध्यान देना होगा कि अकादमी, प्रशिक्षण से भी संबंधित होता है।

विभिन्न खेलों में आज हमारे पास गिने-चुने नाम हैं। कई खेलों में तो हम प्रतिनिधित्व ही नहीं कर पाते। क्या हम स्कूली जीवन से बच्चों को खेल की अहमियत नहीं बताएं? बच्चे तो इसकी अहमियत जान भी जाएं, लेकिन कितने मां-बाप ऐसे होंगे जो बच्चों को अधिकारी के बजाय खिलाड़ी बनाना चाहते हों। क्या यह वक्त की नजाकत नहीं है कि हम इस ओर देखें। अगर कुछ बच्चे खेल को पसंद भी करते हैं, तो निश्चित तौर पर उसमें उनके अभिभावकों का योगदान होता है। ऐसे अभिभावक या तो खुद खिलाड़ी होते हैं या खेल से जुड़े होते हैं।
अधिकारी होना अगर व्यक्तिगत गर्व की बात है, तो खिलाड़ी होना देश के गर्व की बात है। फिर भी हमारा समाज अधिकारी ही तलाशता है। खिलाड़ी होने का मतलब पढ़ाई से दूर तक वास्ता नहीं होने से लिया जाता है। इस पर नए सिरे से विचार करना होगा। कोई भी खेल निश्चित तौर पर वर्ग या समूह में खेला जाता है। समूह में खेले जाने के कारण उनमें हर तरह के संघर्ष से खुद को उबारने और उसका सामना करने की शक्ति जन्म लेती है। रही बात आज के जीवन की, तो तनाव भरे माहौल में यह बच्चों में आशा का जबर्दस्त संचार करता है।
परीक्षा परिणाम से आत्महत्याएं करते बच्चों को खेल इस निराशा से दूर कर देता है। हमें बच्चों के जीवन में खेल को भी शामिल करने की पूरी कोशिश करनी चाहिए। आज शहरों में पार्क और गलियां बड़े-बुजुर्गों के लिए ही टहलने की अनुकूल जगह बनते जा रहे हैं। बच्चे अब पार्क-गली में कम ही नजर आते हैं। जहां पहले पार्कों में शाम होते ही बच्चों का कोलाहल सुनने को मिलता था वहीं वे होमवर्क के भार में इतने दबे हैं कि उन्हें बाहर निकलने का वक्त ही नहीं है। हम प्रतियोगी हो रहे इस माहौल में बच्चों को भी पूरी तरह से रोबोटिक और मशीनी युग में पहुंचा चुके हैं। उनकी नियमित दिनचर्या में अब खेल का कोई स्थान नहीं है।

अगर इस पर विचार किया जाए तो क्या इसके लिए सिर्फ बच्चे जिम्मेदार हैं? जिम्मेदारी तो सभी को लेनी होगी। समाज के सभी लोगों को अपने भविष्य से कैसी उम्मीदें हो गई हैं, इस पर विचार करने की तत्काल आवश्यकता है। हमने रोशनी करने के इंतजाम में घोर अंधेरा फैला लिया है। बच्चों पर हम केवल अपने निर्णय थोप रहे हैं।
आज बच्चों में शिथिलता है, नीरसता है, तो इसके लिए भी वे माता-पिता ही जिम्मेदार हैं, जो बच्चों को खेलने से रोकते हैं। बच्चे तंदूरियों के स्वाद में मोटे हो रहे हैं, लेकिन माता-पिता उन्हें खेलने के लिए बाहर भेजने को राजी नहीं हैं। उन्हें लगता है कि बाहर प्रदूषण का स्तर भयानक है। बैक्टीरिया-कीटाणु, संक्रमण से बच्चों को दूर रखने का छिपा हुआ उद्देश्य भी उन्हें खेलने से रोक रहा है। हम मानसिक तौर पर मजबूत बच्चे बनाने के लिए जो उपाय कर रहे हैं उससे उनके जीवन को बस एक रुटीन मिल जाएगा। समाज के स्वस्थ विकास के लिए अभिभावकों को बच्चों को खेल के मैदानों में भेजना होगा। माता-पिता व्यस्त दैनिक जीवन से थोड़ा वक्त बच्चों के खेल में भी बिताएं। नहीं तो बच्चे आगे चल कर सिर्फ पैसे कमाने की मशीन बन जाएंगे। उनके बीच संवेदना का स्तर न्यून होता जाएगा। स्थिति बेहद गंभीर है।