देश से वर्ष 2025 तक टीबी यानी क्षय रोग का उन्मूलन करना कोई सहज काम नहीं है। सरकार का लक्ष्य जरूर है कि अगले आठ साल में टीबी का सफाया कर दिया जाएगा, लेकिन आजादी के बाद से जिस तरह से इस दिशा में काम किया जाता रहा है उससे लगता नहीं कि वर्ष 2025 तक देश को टीबी से निजात दिलाई जा सकेगी। दरअसल, जब तक हम युद्धस्तर पर कुपोषण से निपटने की रणनीति तैयार नहीं कर लेते हैं और उस पर मुस्तैदी से अमल नहीं करते हैं तब तक टीबी को जड़ से मिटाना संभव नहीं है। देश में बीमारी से होने वाली मौतों में तपेदिकको पांचवीं बड़ी वजह माना गया है। हाल ही में आई केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की एक विशेष रिपोर्ट में इस बात का उल्लेख है। रिपोर्ट पर गौर करें तो पता चलता है कि चीन और श्रीलंका के मुकाबले भारत में तपेदिकका ग्यारह गुना से ज्यादा प्रकोप है।
जिन देशों की अर्थव्यवस्था सुधर रही है वहां टीबी जड़ से खत्म हो रही है। लेकिन भारत में टीबी का प्रकोप न सिर्फ कायम है बल्कि तेजी के साथ पांव भी पसार रहा है। दूसरी ओर, संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन की वर्ष 2017 की हाल में ही आई रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत में 14 से 51 वर्ष की 52.3 फीसद महिलाओं में खून की कमी है। छह वर्ष से कम उम्र के 39.07 फीसद बच्चों की अपनी आयु के मद््देनजर लंबाई कम है। तेईस फीसद का तो वजन ही काफी कम है। इसका मतलब साफ है कि आर्थिक संपन्नता के नजरिए से अब भी देश औसत स्थिति तक नहीं पहुंच पाया है। केंद्र सरकार भले यह दावा करे कि देश की आर्थिकी सशक्त हुई है, लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और है।
विशेषज्ञों की मानें तो देश की एक बड़ी आबादी जो टीबी से पीड़ित है उसकी गिनती आज तक सरकार नहीं कर पाई है। इनमें बिहार, राजस्थान, ओड़िशा, झारखंड, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, हिमाचल प्रदेश, पश्चिम बंगाल, असम, त्रिपुरा, मिजोरम, मणिपुर, नगालैंड और उत्तराखंड जैसे राज्य शामिल हैं। विशेष रूप से वे लोग जो दूरदराज के ग्रामीण क्षेत्रों में रहते हैं, जहां आवागमन की सुविधाएं नहीं हैं। पूर्वोत्तर के राज्यों में सबसे ज्यादा प्रभावित आदिवासी हैं, जो आज भी दो जून की रोटी के लिए तरस रहे हैं। ऐसे लोगों को आज भी सरकार टीबी के संदर्भ में सूचीबद्ध नहीं कर पाई है।
असल में टीबी एक ऐसी बीमारी है जो ठीक पोषण न मिलने से इंसान को जकड़ती है और उपचार न होने पर मौत के मुंह में धकेल देती है। एक अध्ययन से पता चलता है कि पूरे विश्व में टीबी से रोजाना करीब छह हजार मौतें होती हैं, जिनमें से एक सौ साठ मौतें अकेले भारत में होती हैं। टीबी के बारे में यों कहा जा सकता है कि दुनिया के अट्टाईस फीसद तपेदिकके मरीज भारत में रहते हैं। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय का आंकड़ा बताता है कि देश में प्रति एक लाख आबादी पर 219 तपेदिकरोगी हैं। इनमें अड़तीस की मृत्यु हो जाती है। मंत्रालय ने वर्ष 2025 तक टीबी उन्मूलन का लक्ष्य रखा है। इसके तहत टीबी के मरीजों को प्रति लाख आबादी पर 47 और टीबी से होने वाली मौतों को 4 से नीचे लाना होगा। हालांकि यह काम कठिन जरूर है लेकिन बहुत कुछ सरकार की इच्छाशक्ति पर निर्भर करता है।
केंद्र सरकार ने कुपोषण निवारण योजनाओं में ठिगनेपन, अल्प पोषाहार, रक्त की कमी और जन्म के समय बच्चे के कम वजन की समस्या से निपटने पर जोर देने का निर्णय लिया है। यह मिशन 2025 तक 1 करोड़ लोगों तक पहुंचेगा। कुपोषण के खिलाफ यह अभियान चरणबद्ध ढंग से सभी राज्यों और जिलों में चलाया जाएगा। वर्ष 2017-18 में 3015 जिले और वर्ष 2019-20 में शेष जिले इसमें शामिल हो जाएंगे। यदि वास्तव में यह कार्यक्रम सफल हो जाता है तो टीबी के मरीजों की संख्या में बारह फीसद की कमी आ जाएगी। लेकिन अहम सवाल यह है कि क्या ऐसा हो पाएगा। पहले भी इस तरह के अभियान चलाए गए हैं, लेकिन भारी खर्च करने के बाद भी नतीजा अब तक सिफर ही रहा है।
दूसरी अहम बात यह है कि मौजूदा दवाएं टीबी मरीजों पर बेअसर हो रही हैं। करीब आठ लाख ऐसे रोगी हैं जिनमें बहु-दवा प्रतिरोधकता (मल्टीड्रग रेजिस्टेंस) विकसित हो चुकी है। इनका उपचार भी चुनौती बना हुआ है। टीबी एक ऐसी बीमारी है जिससे निम्न वर्ग सबसे ज्यादा प्रभावित होता है। टीबी को गरीबों की बीमारी कहा जाता है। टीबी से ग्रस्त लोगों को खोजने की रफ्तार भी देश में काफी धीमी है। वर्तमान में प्रति एक लाख जनसंख्या पर एक साल में करीब तेईस क्षय रोगी ही खोजे जा पाते हैं। टीबी की रोकथाम के लिए गठित राष्ट्रीय क्षय नियंत्रण कार्यक्रम भी सफल नहीं हो पा रहा है। सबसे बड़ी बात यह है कि जिन टीबी पीड़ित लोगों की पहचान की जा रही है उनका पंजीयन नहीं किया जा रहा है। फिर, बड़ी समस्या दवाइयों को लेकर है। दवाओं के सेवन का कुप्रभाव भी शरीर पर पड़ने की पुष्टि हो चुकी है।
हालांकि भारत सरकार का यह दावा है कि सरकारी स्वास्थ्य केंद्रों पर टीबी का निदान और उपचार नि:शुल्क किया जाता है। पर मध्यप्रदेश, बिहार और उत्तराखंड में स्थिति बिल्कुल भिन्न है। स्वास्थ्य केंद्रों पर चिकित्सक ही नहीं मिलते हैं। मध्यप्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़ और झारखंड के टीबी अस्पतालों का तो सबसे बुरा हाल है। इन राज्यों के टीबी अस्पतालों में दवा-खरीद के नाम पर करोड़ों रुपए की हेराफेरी भी उजागर हो चुकी है। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की एक रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि टीबी के कीटाणु नए ढंग से फैल रहे हैं। तपेदिक से संक्रमित एक से पांच फीसद लोग अपने जीवन-काल में एचआईवी के भी शिकार हो जाते हैं। तपेदिकशरीर के किसी भी भाग को संक्रमित कर सकता है।
टीबी रोग के वरिष्ठ चिकित्सक मानते हैं कि इसकी संक्रमण दर 22 फीसद तक है। चिकित्सक यह भी मानते हैं कि यदि टीबी के जीवाणु क्षतिग्रस्त ऊतकों में प्रवेश कर जाते हैं तो वे पूरे शरीर में फैल सकते हैं और संक्रमण के कई केंद्र बना सकते हैं। टीबी के फिर से बढ़ रहे प्रकोप पर विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी चिंता जताई है और कहा है कि एशियाई देशों को इसे गंभीरता से लेने की जरूरत है। इस पर नए तरीके से शोध की आवश्यकता है। पर केवल शोध से काम नहीं चलेगा, बल्कि टीबी मरीजों के लिए प्रोटीन-युक्त भोजन की भी व्यवस्था करनी पड़ेगी। यहां यह उल्लेखनीय है कि चीन ने टीबी की रोकथाम में काफी सफलता पाई है।
टीबी पर अनुसंधान कर रहे है वैज्ञानिकों ने यह प्रमाणित कर दिया है कि मधुमेह होने से टीबी का खतरा दो से तीन गुना बढ़ जाता है। साथ ही मधुमेह नियंत्रण भी जटिल हो जाता है। मधुमेह नियंत्रण यदि उचित ढंग से नहीं किया गया तो टीबी होने का खतरा बना रहता है। टीबी के उन्मूलन के लिए पूरे देश में युद्धस्तर पर अभियान चलाना होगा। साथ ही यह सुनिश्चित करना पड़ेगा कि स्वास्थ्य केंद्रों विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में बने उपचार केंद्रों पर चिकित्सक मौजूद रहें, प्रचुर मात्रा में दवाइयां उपलब्ध हों। साथ ही, कमजोर तबकों का जीवन-स्तर बेहतर करना होगा। तभी इस वर्ग के मरीज टीबी से जंग लड़ सकते हैं।