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Today in History: आज ही के दिन मिले अंग्रेजी अपमान से जन्मा राष्ट्रगीत, जानिए ‘वंदे मातरम्’ की अनकही दास्तान

Vande Mataram History: एक अंग्रेज अफसर के अपमान ने कैसे जन्म दिया भारत के अमर राष्ट्रगीत ‘वंदे मातरम्’? पढ़िए बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय से जुड़ी वह ऐतिहासिक घटना, जिसने राष्ट्रचेतना को आवाज दी।

By: Archana Keshri
December 15, 2025 12:53 IST
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  • Mahatma Gandhi on Vande Mataram
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    हर बार जब ‘वंदे मातरम्’ गाया जाता है, तो यह सिर्फ एक गीत नहीं लगता, बल्कि भारत के संघर्ष, आत्मसम्मान और आजादी की जटिल लड़ाई की गूंज सुनाई देती है। यह गीत हर भारतीय के मन में उम्मीद जगाता है और याद दिलाता है कि स्वतंत्रता हमें सहज नहीं मिली, इसके पीछे अपमान, प्रतिरोध और साहस की लंबी कहानी छिपी है। इस कहानी के केंद्र में हैं बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय, एक सरकारी अधिकारी, संवेदनशील लेखक और भीतर से जाग्रत राष्ट्रभक्त। माना जाता है कि यदि एक शाम उनकी पालकी रास्ता न भटकती, तो शायद ‘वंदे मातरम्’ जैसा अमर गीत कभी जन्म ही न लेता। (Express Photo)

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    बंकिमचंद्र: अधिकारी से राष्ट्रचेतना तक
    बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय ने कानून की पढ़ाई की थी और ब्रिटिश शासन में डिप्टी कलेक्टर के पद पर कार्यरत थे। वे अपने पिता चंद्र चट्टोपाध्याय के नक्शेकदम पर चले, जो स्वयं मिदनापुर में डिप्टी कलेक्टर रह चुके थे। सरकारी नौकरी में रहते हुए भी बंकिमचंद्र का मन साहित्य और समाज की पीड़ा में रमा रहता था। वे जानते थे कि अंग्रेजी शासन में भारतीय अधिकारी चाहे जितना ऊंचा पद क्यों न पा लें, सम्मान की दृष्टि से उन्हें कभी बराबरी नहीं मिलेगी। (Express Photo)

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    जब अपमान इतिहास बन गया
    15 दिसंबर 1873 की शाम बंकिमचंद्र, उस समय मुर्शिदाबाद के डिप्टी कलेक्टर, घर लौट रहे थे। उनकी पालकी गलती से बहरामपुर के लाल दीघी मैदान से होकर गुजर गई। यह क्षेत्र अंग्रेज छावनी के अंतर्गत आता था। मैदान में उस समय अंग्रेज सैनिक क्रिकेट खेल रहे थे। उनका नेतृत्व कर रहे थे छावनी के कमांडिंग ऑफिसर लेफ्टिनेंट कर्नल डफिन। जैसे ही पालकी मैदान में पहुंची, कर्नल डफिन आग-बबूला हो गया। (Photo Source: Pixabay)

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    उसने पालकी रुकवाने का आदेश दिया, पालकी उठाने वाले मजदूरों को गालियां दीं और जब भीतर बैठे बंकिमचंद्र को देखा, तो अपशब्दों की बौछार कर दी। प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार, कर्नल ने बंकिमचंद्र को पालकी से जबरन उतरवाया, धक्का दिया और हाथापाई की। यहां तक कि चार-पांच घूंसे भी मारे गए। यह सब सैकड़ों लोगों की मौजूदगी में हुआ, अंग्रेज और भारतीय, दोनों के सामने। एक वरिष्ठ भारतीय अधिकारी के लिए यह केवल व्यक्तिगत अपमान नहीं था, बल्कि पूरे देश के स्वाभिमान पर चोट थी। (Photo Source: Pixabay)

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    अदालत में टकराया साम्राज्य और आत्मसम्मान
    अगले ही दिन, 16 दिसंबर 1873, बंकिमचंद्र ने कर्नल डफिन के खिलाफ अदालत में मुकदमा दर्ज कराया। यह अपने आप में ऐतिहासिक कदम था, एक भारतीय डिप्टी मजिस्ट्रेट द्वारा छावनी के कमांडिंग अफसर पर केस। ब्रिटिश प्रशासन में हड़कंप मच गया। जिला मजिस्ट्रेट मिस्टर विंटर ने बंकिमचंद्र पर केस वापस लेने का दबाव डाला। तर्क दिए गए कि कर्नल से ‘गलती’ हो गई, वे पहचान नहीं पाए। (Photo Created by Freepik AI)

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    लेकिन बंकिमचंद्र अडिग रहे। उनका सवाल सीधा था- “क्या किसी अंग्रेज अफसर को किसी भी भारतीय का अपमान करने का अधिकार है?” गवाहों पर दबाव पड़ा। कई पीछे हट गए, लेकिन राजा योगेंद्र नारायण राय और कुछ अन्य साहसी लोग बंकिमचंद्र के साथ खड़े रहे। (Express Photo)

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    खुली अदालत में माफी
    12 जनवरी 1874 को मामले की अंतिम सुनवाई हुई। अदालत खचाखच भरी थी। सबकी निगाहें इस बात पर टिकी थीं कि क्या अंग्रेजी न्याय व्यवस्था अपने ही कर्नल को दोषी ठहराएगी। सबूत स्पष्ट थे। लेकिन फिर भी जज ने बंकिमचंद्र से केस वापस लेने की गुजारिश की। बंकिमचंद्र तैयार भी हो गए, लेकिन एक शर्त पर, कि कर्नल डफिन को अदालत में सबके सामने माफी मांगनी होगी। (Express Photo)

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    जज ने कर्नल डफिन से कहा कि यदि वे खुली अदालत में माफी मांग लें, तो मामला यहीं समाप्त हो सकता है। हजार से अधिक लोगों की मौजूदगी में, कर्नल डफिन ने बंकिमचंद्र से सार्वजनिक माफी मांगी। यह केवल एक व्यक्ति की जीत नहीं थी, बल्कि भारतीय आत्मसम्मान की दुर्लभ विजय थी। (Express Photo)

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    मौत की साजिश और आत्ममंथन
    इस घटना से कई अंग्रेज अधिकारी तिलमिला उठे। चुपचाप बंकिमचंद्र की हत्या की साजिशें रची जाने लगीं। खतरे को भांपकर राजा योगेंद्र नारायण राय ने उन्हें लालगोला में अपने यहां ठहरने का निमंत्रण दिया। मंदिरों से घिरे एक गेस्टहाउस में रहते हुए बंकिमचंद्र के मन में एक ही प्रश्न गूंजता रहा- “मैं अपने देश के लिए क्या कर सकता हूं?” यही आत्ममंथन उनके लेखन में आग बनकर उतरा। (Express Photo)

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    ‘वंदे मातरम्’ का जन्म
    इतिहासकारों के अनुसार, इसी अपमान और प्रतिरोध की आग से 1875–76 के बीच ‘वंदे मातरम्’ की रचना हुई। कहा जाता है कि 31 जनवरी 1874 की रात, लालगोला में रहते हुए बंकिमचंद्र ने इस अमर गीत को शब्द दिए। यह गीत बाद में उनके प्रसिद्ध उपन्यास ‘आनंदमठ’ (1882) का हिस्सा बना। उपन्यास और गीत की क्रांतिकारी भावना ब्रिटिश सरकार को खटकने लगी। बंकिमचंद्र पर मानसिक दबाव डाला गया, बदलाव की मांग की गई। आखिरकार उन्होंने 1885–86 के आसपास सरकारी नौकरी से सेवानिवृत्ति ले ली। लेकिन उनके शब्द अमर हो चुके थे। (Photo Source: Pexels)

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    गांधीजी की दृष्टि में ‘वंदे मातरम्’
    महात्मा गांधी ने जुलाई 1939 में हरिजन पत्रिका में लिखा था कि इस गीत की रचना कब और कैसे हुई, यह उतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना इसका प्रभाव। उनके अनुसार, बंगाल विभाजन के दौर में ‘वंदे मातरम्’ हिंदू और मुसलमान, दोनों के लिए आजादी का नारा बन चुका था। यह गीत औपनिवेशिक सत्ता के खिलाफ विद्रोह की आवाज था। (ANI Photo)

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    सिर्फ गीत नहीं, एक चेतना
    आज, लगभग डेढ़ सौ साल बाद भी ‘वंदे मातरम्’ सुनते ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं। यह सिर्फ राष्ट्रगीत नहीं, बल्कि उस क्षण की याद है जब एक भारतीय ने अपमान के आगे झुकने से इनकार कर दिया। अगर उस दिन बंकिमचंद्र की पालकी रास्ता न भटकती, तो शायद इतिहास कुछ और होता। लेकिन उसी भटकी हुई राह ने भारत को उसकी आत्मा की आवाज दे दी- ‘वंदे मातरम्।’ (Express Photo)
    (यह भी पढ़ें: India 2025 Highlights: दर्दनाक हादसों से ऐतिहासिक जीत तक, 10 यादगार पल जो हर भारतीय कभी नहीं भूलेगा)

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