
'बुंदेलों हर बोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी खूब लड़ी मर्दानी वो तो झांसी वाली रानी थी'..यह कविता आज भी कई लोगों की जुबान से सुनने को मिल जाती है। वहीं कई फिल्मों में रानी का नाम आता है। 19 नवंबर 2018 को झांसी की रानी की 190 वीं जयंती के मौके पर आज आपको उनकी वीरगाथा के बारे में बता रहे हैं। इस कहानी में आप जानेंगे कि मराठी ब्राह्मण परिवार में जन्मीं मणिकर्णिका कैसे बनीं झांसी की रानी। झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का जन्म 19 नवम्बर 1828 को वाराणसी के मराठी ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम मोरोपन्त ताम्बे और माता का नाम भागीरथी बाई था। माता-पिता ने उनका नाम मणिकर्णिका रखा। सभी उन्हें प्यार से ‘मनु’कहकर पुकारते थे। मोरोपन्त मराठी थे और बिठूर में मराठा बाजीराव के यहां सेवा करते थे। (All pics- Social Media) -
मनु जब मात्र 4 वर्ष की थीं, तभी उनकी माता की मृत्यु हो गयी। उनका पालन-पोषण नाना के संरक्षण में हुआ था। झांसी की रानी की कविता में भी जिक्र है 'नाना के संग खेली थी वह नामा के संग पढ़ती थी'। मनु के नाना ने उन्हें बचपन में ही शस्त्र और शास्त्र, दोनों की शिक्षा में माहिर किया था। मनु का 14 साल की उम्र में1850 में झांसी के महाराजा गंगाधर राव से विवाह हो गया था और वह झांसी की रानी बन गई थीं। विवाह के बाद ही उनका नाम लक्ष्मीबाई रखा गया। साल 1851 में झांसी की रानी ने एक पुत्र को जन्म दिया लेकिन 4 माह बाद ही उसकी मृत्यु हो गई, जिसके दुख में राजा गंगाधर राव को गहरा सदमा लगा और बीमार पड़ गए। 1853 को उन्होंने एक दत्तक पुत्र को गोद लिया, जिसका नाम दामोदर राव रखा और 1 दिन बाद गंगाधर राव का निधन हो गया था। यह कहानी आपने सीरियल्स और फिल्मों के जरिए भी देखी है।
बड़ा ही दिलचस्प वाकया है कि 19 नवंबर को रानी का जन्मदिन और 20 नवंबर को उनका पुत्र को गोद लेना और 21 नवंबर को उनके पति की मौत। राजा की मौत के बाद पूरा झांसी शोक में डूबा और जिसका फायदा अंग्रेजों ने उठाना चाहा और किले पर हमले करने की धमकी दे दी। राजा की मौत के बाद ही रानी ने अंग्रेजों को चुनौती दे दी थी कि कुछ भी हो जाए लेकिन वह अपनी झांसी किसी को नहीं देंगी। 5 जून 1857 को अंग्रेजों ने झांसी के सदर बाजार स्थित किले पर भारी सेना तैनात कर हमला बोल दिया था। रानी ने भी अपनी पीठ पर पुत्र को बांधा और अंग्रेजों से लड़ती रहीं। संघर्ष में रानी ने अपनी सेना के साथ 6 जून 1857 को झांसी के झोकनवाग में 61 अंग्रे़जों को मौत के घाट उतारा था। ये नजारा आप किले के बाहरी गार्डन में देख सकते हैं। किले के बाहरी इलाके में अंकित चित्रों में आप देख सकते हैं कि किस तरह रानी ने अंग्रेजों को धूल चटाई थी और अपनी झांसी उनसे वापस ली। 12 जून 1857 में महारानी ने एक बार फिर झांसी राज्य का प्रशासन संभाला लेकिन अंग्रेजों को यह बात कहां हजम हो रही थी और उन्होंने 1858 में फिर झांसी पर हमला बोला। रानी अंतिम समय तक युद्ध करती रहीं लेकिन बाद में उन्होंने अंग्रेजों से लड़ते हुए किले की इसी जगह से लंबी छलांग लगाई थी और तब उनका घोड़ा नाले में जा गिरा। तभी पीछे से एक अंग्रेज ने उन पर हमला कर दिया, जिसमें वह गंभीर से रूप में घायल हो गई थीं। -
मौत से पहले रानी ने अपने दत्तक पुत्र को रामचंद्र देशमुख को सौंप दिया था। 18 जून 1858 को 29 वर्ष की आयु में वे वीरगति को प्राप्त हुईं।
झांसी शहर में जिस ओर आप नजर डालेंगे रानी ही नजर आती हैं। आजादी की पहली लड़ाई की अनगिनत यादें सजोएं हुए झांसी शहर में रानी लक्ष्मी बाई के किले के अलावा तमाम ऐतिहासिक धरोहर समेटे हुए है। यहां हर साल रानी की याद में 'झांसी महोत्सव' मनाया जाता है।