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यूपी के प्रतापगढ़ जिले के राजघरानों से देश को प्रधानमंत्री, विदेश मंत्री और राज्यपाल भी निकले हैं, लेकिन उनकी आने वाली पीढ़ियों में कुछ ने सियासत को संभाल लिया तो कुछ उसे बचाने के लिए लड़ते रहे। इसमें से कुछ राजघरानों की राष्ट्रीय स्तर की राजनीति यूपी में ही सिमट कर रह गई। कुछ रियासतों की सियासत अब ब्लॉक और जिला पंचायत स्तर तक है, वहीं कुछ ने राजनैतिक सियासत से दूरी बना ली।
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यहां उन पांच राजघरानों का जिक्र कर रहे हैं, जिसमें वीपी सिंह का मांडा राजघराना, राजा भैया का भदरी राजघराना, राजकुमारी रत्ना का कालाकांकर राजघराना, प्रतापगढ़ सिटी का राजा अजीत प्रताप सिंह जनसंघ राजघराना और राजा अमरपाल सिंह का दिलीपपुर राजघराना शामिल है।
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मांडा राजघराना की बात करें तो इस राजघराने से देश के आठवें प्रधानमंत्री वीपी सिंह निकले थे, लेकिन वीपी सिंह के बाद इस रियासत से भारती राजनीति में कोई दोबारा सामने नजर नहीं आया। वीपी सिंह के निधन के बाद उनके बड़े पुत्र अभय प्रताप सिंह ने विरासत में मिली सियासत को आगे बढ़ाना तो चाहा था, लेकिन सफलता नहीं मिली तो वह बिजनेस में कूद पड़े।
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आजादी की लड़ाई में अहम भूमिका निभाने वाले कालाकांकर राजघराने का राजनीति से गहरा रिश्ता है। इस राजघराने को कांग्रेस का गढ़ भी कहा जाता है। इस स्टेट के राजा रामपाल सिंह कांग्रेस के संस्थापक सदस्य रहे। राजा दिनेश सिंह वर्ष 1971 के लोकसभा चुनाव में सांसद चुने गए। दिनेश सिंह के बाद उनकी बेटी राजकुमारी रत्ना सिंह ने कालाकांर राजघराने की परंपरा को आगे बढ़ाई। तीन बार कांग्रेस से प्रतापगढ़ की सांसद रही रत्ना साल 2019 में बीजेपो जुड़कर सियासत बचा रही हैं।
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1962 में प्रतापगढ़ किले के राजा अजीत प्रताप सिंह जनसंघ के टिकट पर चुनाव लड़कर लोकसभा पहुंचे। वह तीन बार कांग्रेस से विधायक व वन मंत्री भी रहे। उनके बाद सियासत में उनके पुत्र राजा अभय प्रताप सिंह ने कदम रखा। पिता की विरासत संभालने उतरे उनके वारिस राजा अनिल प्रताप सिंह कई बार विधानसभा का चुनाव लड़े लेकिन कामयाब नहीं हो सके। मौजूदा समय में राजा अनिल कांग्रेस छोड़कर भाजपा में शामिल हो कर नए सिरे से सियासत बचाने में जुटे हैं।
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दिलीपपुर राजघराना में जहां संपत्ति को लेकर कानूनी लड़ाई चल रही है वहीं इस किले की सियासत केवल ब्लॉक प्रमुख, बीडीसी एवं प्रधान तक ही सिमट चुकी है। कभी राजा अमरपाल सिंह विधान परिषद सदस्य बने थे। उनके बाद उनके वारिसों ने सियासत से दूरी बनाी ली। तीन बार राजा सूरज सिंह व रानी सुषमा सिंह दिलीपपुर की प्रधान रहीं। दिलीपपुर राजघराने की राजकुमारी भावना सिंह विरासत में मिली सियासत को आगे बढ़ाने के लिए तैयार हैं।
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अब बारी आती है राजा भैया के भदरी राजघराने की। इस रियासत के राजा राय बजरंग बहादुर सिंह हिमाचल प्रदेश के गर्वनर थे। दादा की सियासत को मजबूती देने के लिए राजा भैया कदम आगे बढ़ाया और पहली बार 1993 में पहली बाद विधानसभा चुनाव जीत कर सामने आए। उसके बाद से एक भ्ची चुनाव राजा भैया नहीं हारे। राजा भैया प्रदेश की भाजपा व सपा सरकार में वह कैबिनेट मंत्री के रूप में कार्य कर चुके हैं। सपा से दूर होने के बाद राजा भैया ने अपनी पार्टी बना ली है। जनसत्ता दल के साथ वह चुनावी मैदान में पिछली बार उतरे थे। राजा भैया ने अपनी रियासत और सियासत दोनों ही बचा ली है। PhotoS Social Media
