आम आदमी पार्टी (आप) की सरकार लोगों को मुफ्त जांच और दवाइयां मुहैया कराने के लिए अपनी पीठ थपथपा रही है, लेकिन अस्पतालों का नजारा कुछ और ही कहानी बयां कर रहा है। दवाओं की खरीद में फैले भ्रष्टाचार को कम करने व मरीजों को राहत देने की कोशिश बिना तैयारी व प्रतिबद्धता के कोई खास फायदा नहीं दे पा रही है। इलाज के लिए भटकते मरीजों व बीच का रास्ता निकलने की कोशिश करते डॉक्टरों के बीच आए दिन झगड़े की नौबत आ रही है। इससे डॉक्टरों व मरीजों के बीच अविश्वास का माहौल बन रहा है और मरीजों को कई महंगी दवाइयां बाहर से ही खरीदने को मजबूर होना पड़ रहा है।
राजधानी के हर अस्पताल को विशेषज्ञता के लिहाज से अलग-अलग तरह की दवाओं की जरूरत है जबकि सरकार सभी को एक ही चाबुक से हांकने में लगी है। जिस अस्पताल को अलग दवाओं की जरूरत है वह दवा बार-बार मंगाए जाने के बाद भी नहीं आ रही है। लिहाजा मरीज अस्पताल के बाहर से महंगी दवा खरीदने को मजबूर हैं या हार कर किसी झोला छाप डॉक्टर की शरण में जाने को।
आप सरकार ने सत्ता में आते ही सभी अस्पतालों में मरीजों को मुफ्त दवा देने का सर्कुलर निकाला और डॉक्टरों को लिखित आदेश दिया कि वे कोई भी जांच व दवा बाहर से लाने को न लिखें, लेकिन दवाओं की उपलब्धता सुनिश्चित नहीं की गई। सरकार ने भ्रष्टाचार रोकने के नाम पर दवाओं की खरीद शुरू की। इसके लिए एक केंद्रीय एजेंसी बनाई गई और कहा गया कि तीन वेयरहाउस भी बनाए जाएंगे। इन सबके बावजूद दवा आपूर्ति के लिए कोई समयबद्ध योजना नहीं बनाई गई है, जिससे लोगों को दवाएं नहीं मिल पा रही हैं। जरूरी दवाओं की सूची में कुल 1417 दवाएं शामिल हैं, लेकिन इनमें से महज 650 दवाएं ही दवाखानों में मिल रही है। बाकी दवाओं को लोकल परचेज के लिए कहा गया, लेकिन इनको भी दो श्रेणी में बांट दिया गया- अनिवार्य दवा व वैकल्पिक दवा। मल्टीविटामिन व ताकत की दवाएं आनी भी बंद हो गर्इं। इसके कारण न तो दवा कंपनियों का डॉक्टरों से गठजोड़ टूट रहा है, न ही मरीजों को राहत मिल रही है।
दवा बांटने का लाइसेंस तक नहीं
तिमारपुर के राजीव गांधी सुपर स्पेशिलिटी अस्पताल में हर तरफ ईमानदार सरकार का बखान करते बोर्ड नजर आते हैं, बेसमेंट में भारी मात्रा में दवाओं का भंडार भी है, लेकिन यहां के दवा के काउंटर पर पैरासिटामॉल तक नहीं मिल रही है। यहां करीब दो-ढाई सौ मरीजों को जरूरी दवा नहीं मिल रही। वजह तलाशने पर पता चला कि अभी तक दवा बांटने का लाइसेंस तक नहीं मिला है। अस्पताल के कार्यकारी निदेशक डॉ सुनील कुमार ने कहा कि अस्पताल अभी नए सिरे से शुरू ही हो पाया है, इसे पटरी पर आने में वक्त लगेगा। दवा बांटने का लाइसेंस पाने की प्रक्रिया चल रही है।
महंगी दवाएं लेने की मजबूरी
गुरु तेगबहादुर अस्पताल के महिला रोग विभाग में दिखाने आर्इं विंध्यवासिनी (बदला नाम) ने बताया कि उन्हें पेट में दर्द की शिकायत थी। डॉक्टर ने बताया कि बच्चेदानी में रसौली है। आॅपरेशन कराओ या कि तीन महीने तक दवा से इलाज कराओ। आॅपरेशन से बचने के लिए हमने दवा से ठीक होने का विकल्प चुना तो डॉक्टर ने बताया कि इसकी दवा महंगी आती है, इसलिए सरकार नहीं खरीद रही है। अगर तुम चाहो तो हम बाहर से कुछ छूट पर दवा दिला सकते हैं। जब हमने हामी भरी तो उन्होंने एयूलीट्रस्काल पांच एमजी की दवा दिलवाई, जो एक पत्ता 1490 रुपए की थी और हमें 1000 रुपए में मिली। महीने भर की दवा 4500 रुपए की है, जो हम गरीब मरीजों के लिए काफी मुश्किल है। वहीं अस्पताल के चिकित्सा अधीक्षक डॉ सुनील कुमार ने दावा किया कि हमारे यहां 95 फीसद दवाएं उपलब्ध हैं। हमारी हेल्पलाइन पर दवा न मिलने की कम ही शिकायतें आती हैं।
मानसिक रोगियों की दवा भी नदारद
इंस्टीट्यूट आॅफ ह्यूमन बिहेवियर एंड अलाइड साइंस (इबहास) में मानसिक रोगियों के हिसाब से अलग तरह की दवाओं की ज्यादा जरूरत होती है, लेकिन यहां भी केंद्रीय खरीद वाली दवाएं ही मिल पा रही हैं। एक मरीज के तीमारदार राजीव ने बताया कि मानसिक रोगियों या दिमाग के मरीजों के लिए एक दवा आती है, जो चक्कर आने का इलाज करती है, लेकिन वह दवा नहीं मिल रही। यहां के पिछले निदेशक ने कुछ दवाओं की खरीद का टेंडर निकाला था, लेकिन नए निदेशक ने आते ही वह टेंडर रोक दिया। अस्पताल प्रशासन का कहना है कि हम जरूरी दवाओं की इमरजेंसी खरीद करते हैं, जबकि हकीकत यह है कि यहां टिश्यू प्लाज्मा इंजेक्शन तक नहीं है।
फेडरेशन आॅफ रेजीडेंट डॉक्टर्स एसोसिएशन (फोर्डा) अध्यक्ष डॉ पंकज सोलंकी ने इस बारे में कहा कि दवाएं न तो समय आ रही हैं न सभी दवाएं मिल रही हैं। हमने लिख कर दिया कि कम से कम 30 फीसद दवा का स्टाक रहते ही जीरो स्टाक मानकर दवा का आर्डर भेज दिया जाए, लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है जिससे मरीजों को दवा मिलने में मुश्किल आ रही है।
हमें बाहर से दवा नहीं लिखने की हिदायत है। कई दवाएं खासकर अस्पताल में भर्ती मरीजों के लिए एंटीबायोटिक्स तक तक ढूंढ़नी पड़ती हैं कि किस विभाग या अस्पताल में यह मिलेगी। हमारी मुश्किल यह है कि अगर कोई दवा नहीं मिलती तो मरीज को या तो उसके हाल पर छोड़ दें या फिर उपलब्ध दवा का विकल्प बताएं, लेकिन आदेश के आगे हम मजबूर हैं।

