नाट्य कला की विभिन्न विधाओं के शिक्षण-प्रशिक्षण और संवर्धन के लिए शुरू किया गया राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी) अपने मूल उद्देश्य के साथ जद्दोजहद कर रहा है। एनएसडी की बढ़ती जिम्मेदारियों, निदेशकों की बदलती प्राथमिकताओं व मनोरंजन के बढ़ते माध्यमों के कारण पिछले कई सालों से नाट्य कला में कलाकारों की नई पौध खड़ी नहीं हो पाई है। टेलीविजन के बढ़ते दायरे और प्रोत्साहन के अभाव में कलाकारों के सामने एक नई चुनौती खड़ी हो गई है। यही वजह है कि रंगमंच से जुड़े कलाकार या तो टीवी उद्योग में रोजी-रोटी के जुगाड़ में लगे हैं या फिर मंत्रालयों की प्रायोजित डॉक्यूमेंट्री में काम कर रहे हैं या किसी दूसरे संस्थान में पढ़ा रहे हैं।
शिक्षण में आई गिरावट
वहीं कला जगत के जानकारों की मानें, तो एनएसडी में गिरावट आई है। एनएसडी के पहले निदेशक ईब्राहिम अल्काजी के कार्यकाल के तमाम कलाकारों ने जहां एक मुकाम हासिल किया वहीं उनके बाद के निदेशकों ने कला के शैक्षणिक पहलू पर ध्यान देने के बजाए कला की विविधिता व इसकी दर्शकों तक पहुंच बढ़ाने पर ज्यादा ध्यान दिया, एनएसडी रेपेट्री की स्थापना हुई, भारत रंग महोत्सव जैसे विशालकाय कार्यक्रम शुरू किए गए और अब तो ऐसे आठ नौ कार्यक्रमों की श्रृंखला तक शुरू हो चुकी है, इसके फायदे भी हुए और नुकसान भी। भारंगम में एनएसडी के छात्रों को एक ही मंच पर सौ से ज्यादा देसी-विदेशी नाटकों को देखने व समझने का और उसमें भागीदारी करके अपनी अभिनय क्षमता को संवारने का मौका मिला वहीं कार्यक्रमों के बोझ से दबे प्रशासन का ध्यान शैक्षणिक गतिविधियों से भटका। इन कार्यक्रमों से एनएसडी के छात्रों का अनुभव तो बढ़ा, लेकिन वे अपनी कला के लक्षित पक्ष पर ध्यान नहीं दे पाए।
30-40 करोड़ का सालाना बजट
करीब तीस से चालीस करोड़ के सालाना बजट, चार से पांच छात्रों पर एक शिक्षक के अनुपात के बावजूद एनएसडी के छात्र प्रदर्शन में पिछड़ रहे हैं। छात्रों की कला जरूरतों को पूरा करने में एनएसडी इसलिए भी नाकाम दिख रहा है क्योंकि संस्कृति मंत्रालय जो काम पहले खुद एनएसडी की भागीदारी से करता था, उसने अब सारा काम एनएसडी को ही सौंप दिया है। लिहाजा एनएसडी प्रशासन देश भर में कला संरक्षण के लिए अनुदान देने, छात्रवृत्ति देने और रेपेट्री को खड़ा करने में सहयोग करने जैसे कामों में उलझ गया है। एनएसडी के एक पूर्व छात्र ने नाम न छापने की शर्त पर कहा कि एनएसडी रेपेट्री की स्थापना प्रयोगधर्मी नाटकों को आगे बढ़ाने के लिए हुई थी। यहां साल में एक बड़ा कार्यक्रम होना तय था, लेकिन जब इससे पैसा आने लगा और तंगहाली दूर हुई तो कार्यक्रमों की श्रृंखला बढ़ती गई। हालांकि इससे ध्यान भटका है। एसएसडी के पूर्व छात्र व अतिथि संकाय नईक हुसैन का कहना है कि सिनेमा की दुनिया में चमकना ही सफलता का पैमाना नहीं है। महज चार-पांच छात्र ही बॉलीवुड की ओर जाते हैं, जबकि बाकी लोग अपने क्षेत्र में काम कर रहे हैं। वे खुद भी आदिवासी नृत्य व कला के साथ कठपुलती कला को सहेजने व उसे विश्व फलक पर ले जाने का काम कर रहे हैं। एनएसडी के संकाय राजेश तैलंग ने बताया कि महाराष्ट्र, असम, कर्नाटक, गुजरात, और मध्य प्रदेश में नाटकों में अच्छा काम हो रहा है। पिछले कुछ सालों से शैक्षणिक गतिविधियों को बढ़ावा देने के साथ ही राज्यों में रेपेट्रीज की जरूरत महसूस की जा रही है, ताकि यहां शिक्षण-प्रशिक्षण के बाद नई प्रतिभाओं को सामने लाने के मौके भी मिल सकें।
नाट्य कला की धरोहर सहेजना और आगे ले जाना है मकसद
एनएसडी के निदेशक वामन केंद्रे का मानना है कि संस्थान का मकसद नाट्य कला धरोहर को सहेजना और आगे ले जाना है और वह इस दिशा में पूरी प्रतिबद्धता से काम कर रहा है। इसकी सफलता का पैमाना सिने जगत में चेहरा चमकाना नहीं बल्कि कला को सहेजने की दिशा में जुटकर काम करना है, जो कई कलाकार कर भी रहे हैं। उन्होंने कहा कि अपने भीतर के कलाकार को सामने लाना एक रात का काम नहीं बल्कि सालों की तपस्या का नतीजा होता है। पंकज कपूर, नसीरुद्दीन शाह, ओमपुरी, आशुतोष राणा, आशीष विद्यार्थी, नवाजुद्दीन सिद्दीकी या सीमा विश्वास जैसे कलाकारों ने सालों-साल मेहनत करने के बाद नाम कमाया है।

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