दिल्ली की ऐतिहासिक जामा मस्जिद के शाही इमाम सैयद अहमद बुखारी ने मंगलवार को कहा कि एक बार में तीन तलाक का मुद्दा उच्चतम न्यायालय पहुंचा क्योंकि ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड मुसलमान महिलाओं की समस्याओं का समाधान करने में विफल रहा। बुखारी ने कहा कि एक बार में तीन तलाक के मामले में बोर्ड का रूख एक जैसा नहीं रहा है। उन्होंने पीटीआई-भाषा से कहा, ‘‘मुस्लिम लॉ बोर्ड ने कदम क्यों नहीं उठाया? इसलिए ये महिलाएं (याचिकाकर्ता) अदालत गईं। मुस्लिम लॉ बोर्ड ने पहले अदालत को बताया कि वह तीन तलाक के चलन से बचने के लिए निकाहनामे में परामर्श जारी करेगा। फिर उसने कहा कि उन लोगों का सामाजिक बहिष्कार किया जाएगा जो तीन तलाक देते हैं।’’
सर्वोच्च न्यायालय ने मंगलवार को ऐतिहासिक फैसला देते हुए तीन तलाक को ‘असंवैधानिक’ व ‘मनमाना’ करार देते हुए कहा कि यह ‘इस्लाम का हिस्सा नहीं’ है। पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने दो के मुकाबले तीन मतों से दिए अपने फैसले में कहा कि तीन तलाक को संवैधानिक संरक्षण प्राप्त नहीं है। न्यायमूर्ति कुरियन जोसेफ, न्यायमूर्ति रोहिंटन फली नरीमन और न्यायमूर्ति उदय उमेश ललित ने कहा कि तीन तलाक इस्लाम का मौलिक रूप से हिस्सा नहीं है, यह कानूनी रूप से प्रतिबंधित और इसे शरियत से भी मंजूरी नहीं है।
वहीं, प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति जे.एस. खेहर और न्यायमूर्ति एस. अब्दुल नजीर ने कहा कि तीन तलाक इस्लामिक रीति-रिवाजों का अभिन्न हिस्सा है और इसे संवैधानिक संरक्षण प्राप्त है। न्यायमूर्ति खेहर ने अपने फैसले में संसद से इस मामले में कानून बनाने की अपील की। उन्होंने अगले छह माह के लिए तीन तलाक पर रोक लगा दी। साथ ही विभिन्न राजनीतिक दलों से अपील की कि वे अपने मतभेदों को भूलकर इससे संबंधित कानून बनाएं।
न्यायालय ने कहा कि जब ‘तीन तलाक’ जैसे मुद्दे सामने आते हैं तो विमर्श में अक्सर धर्म की भिड़ंत संवैधानिक अधिकारों के साथ करा दी जाती है। बहुमत से दिए गए अलग फैसले को लिखने वाले न्यायमूर्ति कुरियन जोसेफ ने कहा कि अलग-अलग हितों के बीच सद्भाव कायम करने की प्रक्रिया विधायिका के अधिकारों के दायरे में है और इस शक्ति का इस्तेमाल संविधान के तहत दी गई धार्मिक आजादी की गारंटी में कोई कटौती किए बगैर संवैधानिक मानकों के दायरे में किया जाना चाहिए। उन्होंने 26 पन्नों के अपने फैसले में कहा, ‘‘बहरहाल, कोई कानून बनाने का निर्देश देना अदालतों का काम नहीं है।’’
न्यायाधीश ने कहा, ‘‘जब इस तरह के मुद्दे सामने आते हैं तो विमर्श अक्सर ऐसा रूप ले लेता है जिसमें धर्म की संवैधानिक अधिकारों से भिड़त करा दी जाती है। मेरा मानना है कि दोनों के बीच तालमेल संभव है, लेकिन अलग-अलग हितों के बीच सद्भाव कायम करना विधायिका के अधिकारों के दायरे में है।’’ न्यायमूर्ति जोसेफ ने अपने फैसले में यह भी कहा कि अपनी पसंद के धर्म का पालन और उसका प्रचार करना संविधान के तहत मिली आजादी है।