एचएएल और इंडियन एयरफोर्स के लिए 1 जुलाई 2016 की तारीख एक तरह से 1 अप्रैल 1967 का फ्लैशबैक है। करीब पांच दशक पहले एचएएल ने भारत के स्‍वदेसी डिजाइन किया गया फाइटर जेट HF-24 मारुत को एयरफोर्स के डैगर स्‍क्‍वेड्रन को सौंपा था। यह आजाद भारत में पंडित जवाहर लाल नेहरू के देखे गए सपने का चरमोत्‍कर्ष था। नेहरू का विचार था कि एयरक्राफ्ट डिजाइन और प्रोडक्‍शन के क्षेत्र में भारत को आत्‍मनिर्भर बनाया जाए। 50 के दशक के मध्‍य में इंडियन एयरफोर्स से भारतीय डिजाइन के एयरक्राफ्ट संबंधित जरूरतें पूछी गईं। डिजाइन करने की जिम्‍मेदारी एचएएल के सौंपी गई।

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अगस्‍त 1956 में जर्मन एयरोस्‍पेस साइंटिस्‍ट कर्ट टैंक और उनके डिप्‍टी हेर मिटेलहपर बेंगलुरू पहुंचे। वे भारत सरकार के बुलावे पर आए थे। उन्‍होंने HF-24 डिजाइन टीम की अगुआई करने की जिम्‍मेदारी सौंपी गई थी। टीम में बस तीन भारतीय डिजाइनर थे और विमान के पूरे डेवलपमेंट का जिम्‍मा दोनों जर्मनों पर था। अप्रैल 1959 में, उन्‍होंने लकड़ी के ग्‍लाइडर का पहला प्रोटोटाइप बनाया। ऐसा स्‍टाइल जर्मन फाइटर डिजाइनरों को पसंद था। इस टू सीटर ग्‍लाइडर ने 24 मार्च 1960 तक 78 सफल उड़ानें भरीं।

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इसके तुरंत बाद पहले प्रोटोटाइप का निर्माण शुरू हुआ। इस प्रोटोटाइप की पहली आधिकारिक फ्लाइट 24 जून 1961 को हुई। उस वक्‍त तत्‍कालीन रक्षा मंत्री वीके कृष्‍णा मेनन मौके पर मौजूद थे। हालांकि, एयरक्राफ्ट में लगे ब्रिस्‍टल ऑरफियस 703 इंजन में समस्‍या थी। इंडियन एयरफोर्स ऐसा प्‍लेन लेने के लिए अनिच्‍छुक थी, जिसे इस्‍तेमाल करके उसकी ताकत में तत्‍कालीन हंटर विमानों के मुकाबले जरा सी ही बेहतरी होती। भारतीय एक बेहतर इंजन की तलाश में थे। सोवियत क्‍लि‍मोव के-7 को इस्‍तेमाल करने की कोशिश की गई जो नाकाम रही। RD-9F एक्‍स‍ियल फ्लो इंजन का भी वही हाल हुआ। भारतीयों ने तब इजिप्‍ट में बने इंजन EI-300 को परखा। 1966 में इजिप्‍ट के शहर हेलवान में मारुत का प्री प्रोडक्‍शन शुरू हुआ। EI-300 इंजन के साथ मारूत का ट्रायल हुआ। जून 1967 में अरब और इजरायल की जंग शुरू हुई, जिससे EI-300 के डेवलपमेंट का काम ठहर गया। जुलाई 1969 में भारतीय टेस्‍ट टीम को वापस बुला लिया गया। ट्रायल के लिए भेजे गए विमान हेलवेन में ही रह गए। यहां ये सालों तक बेकार पड़े रहे।

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इस बीच, अप्रैल 1969 में एयरफोर्स के टाइगर हेड स्‍क्‍वेड्रन को मारुत से लैस किया गया। दो स्‍क्‍वेड्रन ने 1971 में पाकिस्‍तान के साथ हुई जंग में हिस्‍सा लिया। ये विमान राजस्‍थान सेक्‍टर में लग लड़ रहे जमीनी टुकडि़यों की मदद कर रहे थे। मारुत ने एक पखवारे में 300 से ज्‍यादा सैन्‍य उड़ानें भरीं। न ही किसी विमान को मार गिराया गया और न ही किसी को दुश्‍मन एयरक्राफ्ट से नुकसान पहुंचा। दिसंबर 1973 तक तीसरे स्‍क्‍वेड्रन को मारुत से लैस किया गया। तब तक इस विमान का 70 फीसदी निर्माण भारत में होने वाला था।

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हालांकि, इन विमानों के इंजन के साथ समस्‍या आती रही। “Spirits of the Wind: The HAL HF-24 Marut” में पुष्‍प‍िंदर सिंह ने बताया गया है कि नीची उड़ानों में मारुत का कोई जवाब नहीं था, लेकिन बेहद फुर्ती से काम करने में ये उतने सक्षम नहीं थे। इनमें मेंटेनेंस की भी समस्‍या थी। 1982 तक, एयरफोर्स हेडक्‍वार्टर ने HF-24 को हटाने का फैसला किया। वायुसेना ने माना कि उनका इस्‍तेमाल तत्‍कालीन जरूरतों को देखते हुए नहीं किया जा सकता था। सिंह के मुताबिक, ये विमान वक्‍त से आगे के थे और अगर सरकार इसे विकसित करने में लगी रहती तो आज विमानों के डिजाइन और विकास की दिशा में भारत बहुत आगे होता।

मारुत विमान अब भी दो जगहों पर रखा है। एक एचएएल के बेंगलुरू स्‍थ‍ित हेरिटेज कॉम्‍प्‍लेक्‍स में जबकि दूसरा म्‍यूनिख के एक म्‍यूजियम में। जर्मन इस विमान को अपने तकनीकी विकास की कहानी का हिस्‍सा मानते हैं। हालांकि, हमने इसे यहां भुला दिया है। आज ऐसे वक्‍त में जब तेजस को सेना में शामिल किया गया है, भारत के पहले स्‍वदेसी जेट मारुत को एक बार याद करना तो बनता है।