सूरत के हीरा कारोबारी सावजी ढोलकिया दो साल पहले दिवाली पर अपने कर्मचारियों को महंगे तोहफे देकर चर्चा में आए थे। अब उनका बेटा धृव्य अपनी नौकरी की वजह से सुर्खियां बटोर रहा है। धृव्य को एक महीने के लिए तीन जोड़ी कपड़ों और 7,000 रुपयों के साथ केरल भेज दिया गया था। उनके कहा गया था कि वे एक अनजान शहर में जाकर नौकरी करें और जीवन के कड़वे अनुभवों से सीख लें। NDTV को दिए एक इंटरव्यू में धृव्य ने अपना अनुभव बयान किया है। उन्होंने बताया, ”मैंने 26 जून को यात्रा शुरू की। एक बैग में जरूरत भर का साामान पैक किया। उस रात खाने की मेज पर बैठने से पहले मुझे नहीं पता था कि मुझे कहां जाना था। मेरे पापा ने मेरे टिकट्स बुक कर दिए थे। तब मुझे पता चला कि मुझे केरल के कोच्चि जाना है।” अपने शुरुआती दिनों का अनुभव बताते हुए धृव्य कहते हैं, ”पहले पांच दिनों में, मुझे नौकरी ढूंढ़ने, रहने की जगह तलाशने और खाने का इंतजाम करने में संघर्ष करना पड़ा। मुझे वहां की भा षा नहीं आती थी, इसलिए कोई मुझे नौकरी पर क्यों रखता। लेकिन छठे दिन, मुझे एक रेस्तरां में नौकरी मिल गई। मैंने काउंटर पर बेकरी आइटम्स बेचे। मैं बाकी स्टाफ के साथ रहा, जो वे खाते थे वही खाया, लेकिन वक्त गुजर रहा था। इसलिए मैंने दूसरी नौकरी तलाशना शुरू कर दिया।”
धृव्य आगे बताते हैं, ”बड़ी मुश्किलों के बाद मैंने Adidas शोरूम के मालिक को नौकरी देने के लिए मनाया। लेकिन पहले ही दिन उन्हें एहसास हुआ कि मैं उनके लायक नहीं हूं। उन्होंने मुझे बाद में आने को कहा ताकि वे मुझे ट्रेनिंग देकर नौकरी दे सकें। मैं हताश हो गया। मैंने थोड़ा और जोर लगाया और एक कॉल सेंटर में नौकरी ढूंढ़ी। वह कंपनी अमेरिका में ग्राहकों को सोलर पावर सर्विसेज बेचती थी। यहां मुझे थोड़ी सफलता मिली। इसी लिए वे मुझे प्रतिदिन के हिसाब से वेतन देने को तैयार हो गए। लेकिन यह एक स्टार्टअप था, इसलिए वेतन ज्यादा नहीं था। इस दौरान मैं दिन में सिर्फ एक बार खाना खाता था, वह भी एक प्लेट सांभर चावल। शाम को तो मुझे कंपनी में मिलने वाले ग्लूकोज बिस्किट से ही काम चलाना पड़ता।”
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केरल में अपने आखिरी दिनों के बारे में बताते हुए धृव्य कहते हैं, ‘मैंने McDonald’s में 30 रुपए दिहाड़ी पर काम शुरू किया, लेकिन वहां मैं काम नहीं कर पाया क्योंकि अगले दिन मेरे पिता के साथी मुझे वापस ले जाने आ गए। मैंने आखिरी दो दिन उन सभी लोगों से मिलते हुए बिताए जिन्होंने कोच्चि में मेरी मदद की थी। इस दौरान मैंने लोगों से एक-दूसरे के प्रति सहानुभूति रखना सीखा। मैंने सीखा कि किस तरह दूसरों के दर्द को समझना भी जरूरी है। मुझे एहसास हुआ कि जब मैं किसी को मना कर रहा हूं तो उस पर सोचना जरूरी है ताकि मुझे यह पता चल सके कि नकार दिया जाना कैसा लगता है।”
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