हर साल अनगिनत छात्र खराब परीक्षा परिणामों की वजह से आत्महत्या कर लेते हैं। ये सभी टॉप यूनिवर्सिटीज कॉलेज में एडमिशन लेने की उम्मीदों के साथ परीक्षा देते हैं और असफलत होने पर अपनी जिंदगी ही खत्म कर लेते हैं, और ये सुर्खियां लोगों झंकझोर देने वाली हैं। ये एक सबसे बड़ा मिथक है कि सफलता केवल रिपोर्ट कार्ड से खींची गई रेखा, जबकि पढ़ाई में नाकाम होने पर जिंदगी बेकार हो जाती है, लेकिन मैं इसका जीता जागता सबूत हूं कि ये सभी मिथक सच्चाई से कोसों दूर हैं।
मेरे स्कूल के साल काफी अच्छे नहीं थे। मैं पढ़ाई में अपने साथियों से पिछड़ गया था। डिजिट्स और फॉर्मूले रेत की तरह मेरी पकड़ से फिसल जाते थे। खेल मेरे लिए एक आपदा की तरह था क्योंकि मैं बिना हांफने के एक मील भी नहीं दौड़ सकता था, क्रिकेट की गेंद पर शॉट लगाना मेरे लिए दूर की कौड़ी रहा था। जब मेरी दसवीं कक्षा के बोर्ड के नतीजे आए, तो हल्के शब्दों में कहें तो वे निराशाजनक थे। इसके चलते टीचर्स ने सिर हिलाया और रिश्तेदारों ने फुसफुसाया। ऐसा कल्चर जहां मार्क्स को योग्यता का पैमाना माना जाता है, वहां मुझे एक असफल प्रयास के साथ रिजेक्शन मिलने लगे।
लेकिन यहां वो बात है जो किसी ने नहीं देखी, और यह बात है एक खामोश जिद की। मैंने स्कोरकार्ड को खुद को परिभाषित करने नहीं दिया। मेरा सपना राष्ट्रीय रक्षा अकादमी (एनडीए) था, जहां दृढ़ता को अंकों के बराबर महत्व दिया जाता था। पहले प्रयास में असफल हो गया। दूसरे प्रयास में किसी तरह पास हो गया था। पास होने की वजह यह नहीं थी कि मैं पढ़ाई में प्रतिभाशाली हो गया था, बल्कि इसलिए क्योंकि कि मैंने आत्म-संदेह पर काबू पाना सीख लिया था। एनडीए में मेरे अंक औसत दर्जे के ही रहे। मुझे एक्सप्लेनर्स में दिक्कत होती थी, अक्सर देर रात तक जागकर उन मुद्दों को समझना पड़ता था जो दूसरे आसानी से समझ लेते थे। लेकिन मैं वहां पहुंच जरूर जाता था।
सुबह-सुबह जब हार मान लेना आगे बढ़ने से ज्यादा आसान लगता था, तो मुझे एहसास हुआ दृढ़ता ही मेरी महाशक्ति है। एनडीए और भारतीय सैन्य अकादमी से स्नातक होना मेरे लिए फ़ॉरेस्ट गंप जैसा पल था। यह एक ऐसा अनलिखित, ज़बरदस्त बदलाव जो आपको एहसास दिलाता है कि ज़िंदगी के सबसे निर्णायक अध्याय अक्सर बिना किसी पूर्व सूचना के आ जाते हैं। इसके बाद फिर विशिष्ट विशेष बल इकाई में शामिल होने का मौका आया, और कुछ ऐसा हुआ कि मैं अचानक लगभग बिना किसी प्रयास के टॉप सीट्स हासिल करने लगा।
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ऐसा लग रहा था जैसे कोई अदृश्य शक्ति मेरे कदमों को गाइड कर रही है। मुझे हर उस सीमा से आगे धकेल रही हो जिसे मैं कभी जानता था और जब वीरता पुरस्कार मिला तो ये इस बात का प्रमाण कि कभी-कभी जब आप यात्रा के लिए समर्पण कर देते हैं, तो रास्ता आपको खोज ही लेता है। लेकिन नियति के अदृश्य हाथ की कुछ और ही योजना थी। मेरे अंदर एक शांत, कुतरती हुई बेचैनी ने जड़ें जमा लीं। इसकी शुरुआत नागालैंड से हुई, जहां वर्षों से चल रहा घिसा-पिटा विद्रोह-विरोधी अभियान एक उद्देश्यहीन चक्र जैसा लग रहा था, एक ऐसी लड़ाई जो थकान के अलावा कुछ हासिल नहीं कर रही थी। मैं इस विश्वास को नहीं छोड़ पा रहा था कि यह वो रास्ता नहीं था जिस पर मुझे चलना था।
इसलिए मैंने सेना छोड़ दी और इस फैसले के साथ एक नया अध्याय संयुक्त राष्ट्र में एक जूनियर सुरक्षा अधिकारी के रूप में शुरू हुआ। भले ही वर्दी नहीं थी लेकिन भूमिका ज्यादा अहम थी। मुझे जल्दी ही समझ आ गया कि संयुक्त राष्ट्र के साथ अपने काम में फलने-फूलने और आगे बढ़ने के लिए मुझे और गहराई से अध्ययन करना होगा और अधिक शिक्षा प्राप्त करनी होगी। मुझे ये एहसास हुआ कि खुद को और अधिक ज्ञान से लैस करना होगा। ठहराव कोई विकल्प नहीं था। इस क्षेत्र में विकास के लिए सीखने के प्रति प्रतिबद्धता, अपने ज्ञान की सीमाओं का विस्तार करते रहने की आवश्यकता थी।
मैंने प्रिंसटन विश्वविद्यालय में आवेदन करने का फैसला किया तो मेरे दोस्त हंसे। मेरा शैक्षणिक रिकॉर्ड बहुत अच्छा नहीं था लेकिन मैंने अपने निबंधों में लचीलेपन के बारे में लिखा। बिजली कटौती के बाद मोमबत्ती की रोशनी में पढ़ाई की रातें, कमरे में सबसे होशियार न होने के बावजूद मैंने एक टीम प्रोजेक्ट का नेतृत्व कैसे किया। मैं दाखिल हो गया, बेहतरीन ग्रेड की वजह से नहीं, बल्कि इसलिए कि मैंने अपनी कहानी विकास के इर्द-गिर्द गढ़नी सीखी थी।
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इसके बाद के जीवन की बात करें तो सेना में 12 साल का करियर अनुशासन और अनुकूलनशीलता रिपोर्ट कार्ड से ज़्यादा मायने रखता था। फिर संयुक्त राष्ट्र में 29 साल,. चीन में उसके शीर्ष राजनयिक बनने तक रहा। यह सब इसलिए संभव नहीं था क्योंकि मैंने परीक्षाएं पास की थीं। यह इसलिए संभव हुआ क्योंकि मैं आगे बढ़ता रहा… तब भी जब मुझे लगा कि मैं अयोग्य हूं, तब भी जब दुनिया कह रही थी कि मैं शिखर पर पहुंच गया हूं।
अब सवाल यह है कि मुझे किस चीज़ ने आगे बढ़ाया? तो बता दें कि इसके चार स्तंभ है। पहला दृढ़ता है, क्योंकि सफलता कभी भी तेज़ दौड़ नहीं होती। यह बार-बार सामने आती है, तब भी जब प्रगति अदृश्य हो। दूसरा, आत्मविश्वास अहम रहा। मैंने दूसरों से स्वीकारोक्ति का इंतजार नहीं किया। मैंने यह भरोसा करना चुना कि मेरी कीमत किसी प्रतिशत से बंधी नहीं है। तीसरा अहम बिंदु जागरूकता रहा। जब तनाव ने मुझे जकड़ा तो मैंने असफलताओं को दोहराने के बजाय वर्तमान पर ध्यान केंद्रित करना सीखा। खुद को फोकस करने के लिए पांच मिनट का विराम अनिवार्य हो गया। वहीं चौथा मुद्दा सकारात्मकता है। मेरा दैनिक मंत्र यही रहा, ‘मैं अपनी गलतियों से कहीं बढ़कर हूँ”, क्योंकि असफलताएं एक चक्र हैं न कि अंत।
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अंकों के दबाव में डूबे छात्रों के लिए यह जानना जरूरी है कि आपकी जिंदगी किताब है, कोई परीक्षा नहीं। आगे के पन्नों में ऐसे अध्याय हैं जिनका कोई परीक्षा अनुमान नहीं लगा सकती। मैं गिनती से ज़्यादा बार असफल हुआ लेकिन मैंने पन्ने पलटना कभी नहीं छोड़ा। आज जब मैं पीछे मुड़कर देखता हू, तो मैं उन बुरे ग्रेड्स के लिए आभारी हूं। उन्होंने मुझे सिखाया कि लचीलापन अपूर्णता की दरारों में ही रचा-बसा होता है। इसलिए हार मत मानो। तुम्हारी कहानी अभी नहीं लिखी गई, क्योंकि दृढ़ता ही उसकी सबसे मज़बूत स्याही होगी। कभी हार मत मानो। तुम्हारी सबसे बड़ी जीतें इंतज़ार कर रही हैं, बस अगली कोशिश के बाद।
लेखक सिद्धार्थ चटर्जी हैं जो कि चीन में संयुक्त राष्ट्र के रेजिडेंट कोऑर्डिनेटर हैं।