देवभूमि उतराखंड में भागीरथी और अलकनंदा नदियों के संगम स्थल पर स्थित है इस देवभूमि के पंच प्रयागों में सबसे पहला प्रयाग देवप्रयाग। जिस का विशेष महत्व वेद पुराणों में माना गया है। जहां दो या उससे अधिक नदियों संगम होता है उसे प्रयाग बोलते हैं।

गोमुख गंगोत्री और उत्तरकाशी से होती हुई भगीरथी नदी और अलकापुरी बदरीनाथ से होती हुई अलकनंदा नदी देवप्रयाग में मिलती हैं और इन दोनों नदियों के पावन संगम को गंगा कहा गया है। देवप्रयाग का महत्व इसलिए अत्यधिक है कि जो गंगा नदी देव नदी के रूप में मानी जाती है और जो स्वर्ग से भगवान ब्रह्मा जी के कमंडल और विष्णु जी के चरणों तथा शिव की जटाओं से होती हुई इस धरा धाम को पवित्र और जीवन प्रदान करने के लिए आती है उसका नामकरण इस देव स्थली देवप्रयाग में ही दो नदियों के मिलन के बाद गंगा के नाम से जाना जाता है।

भगीरथी और अलकनंदा नदियों का रूप और स्वरूप अलग-अलग माना जाता है। अलकनंदा शांत होकर बहती है जबकि भगीरथी उछलकूद करती, शोर मचाती अपना उग्र रूप धारण करती हुई देवप्रयाग पहुंचती है। इन दोनों नदियों के स्वभाव को देखकर श्रद्धालु भगीरथी को सास व अलकनंदा को बहू कहकर पुकारते हैं। दोनों नदियां देवप्रयाग तीर्थ पर मिलने के साथ ही अपना-अपना स्वरूप और नाम छोड़कर गंगा कहलाती हैं। जो तीनों लोकों में प्रसिद्ध है और मान्यता है कि देवप्रयाग तीर्थ से गंगा त्रिपथ गामिनी कहलाई जाती है जो यहीं से आकाश, पृथ्वी और पाताल तीनों लोकों में एक साथ प्रवाहित होती है और जल के रूप में धर्म को धारण किए हुए बहती हुई। देवप्रयाग गंगा के तट पर पहला तीर्थ स्थल माना गया है।

गंगा जिस मार्ग से होकर गुजरती है, उन्हीं मार्गो को वह तीर्थों के रूप स्थापित कर उनका मान बढ़ाती है। देवप्रयाग ऐसा पावन स्थल है जहां संगम में स्नान करने से मनुष्य को मोक्ष प्राप्त होता है।

स्कंद पुराण के अनुसार देवप्रयाग तपस्थली में सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा ने भगवान विष्णु का सुदर्शन चक्र प्राप्त करने के लिए दस हजार वर्ष तक तपस्या की थी और भगवान विष्णु ने उन्हें साक्षात दर्शन देकर अपना प्रिय सुदर्शन चक्र प्रदान किया था इसलिए देवप्रयाग को ब्रह्म तीर्थ और सुदर्शन तीर्थ कहा गया।

मान्यता है कि महान तपस्वी भगवान विष्णु के अनन्य भक्त मुनि देव शर्मा ने 11 हजार वर्षों तक इस स्थल पर भगवान विष्णु की कठोर साधना की थी और भगवान विष्णु ने उन्हें साक्षात दर्शन देकर त्रेतायुग में देवप्रयाग पुन: आने का वचन दिया था और और भगवान श्री राम के रूप में भगवान विष्णु पावन स्थली देवप्रयाग आए। उन्होंने ब्रह्महत्या के पाप से मुक्ति पाने के लिए इस संगम तट पर साधना दी और स्नान किया और भगवान श्रीराम ने ही मुनि देव शर्मा के नाम पर इस स्थान का नाम देवप्रयाग रखा।

इतिहासकार राजेश भट्ट का कहना है कि चीनी यात्री हेनसांग ने अपने लेखों में देवप्रयाग को ब्रह्मपुरी कहा है। सातवीं सदी में इसे ब्रह्मतीर्थ और श्रीखंड नगर नाम से भी जाना जाता था। दक्षिण भारत के प्राचीन ग्रंथ अरावल में इसे कंडवेणुकटि नगरम माना गया है। 1000 से 1803 ईस्वी तक शेष गढ़वाल की तरह ही देवप्रयाग भी पाल वंश के अधीन रहा, जो बाद में पंवार वंश के शाह कहलाए।

1882 में द हिमालयन गजेटियर में ईटी एटकिंसन लिखते हैं-देवप्रयाग गांव एक छोटी सपाट जगह पर खड़ी चट्टान के नीचे जलस्तर से सौ फीट की ऊंचाई पर स्थित था। उसके पीछे 800 फीट ऊंचे उठते पर्वत का एक कगार था। जल के स्तर से ऊपर पहुंचने के लिए चट्टानों की कटी एक बड़ी सीढ़ी है, जिस पर मवेशी भी चढ़ सकें।

इसके अलावा रस्सी के दो झूला पुल भगीरथी और अलकनंदा नदी के उस पार जाने के लिए उपलब्ध हैं। आठवीं सदी में आदि शंकराचार्य के साथ दक्षिण भारत से तिलंग भट्ट ब्राह्मण देवप्रयाग आए थे। तिलंग ब्राह्मण बदरीनाथ के परंपरागत तीर्थ पुरोहित हैं। 12वीं सदी के संरक्षित ताम्रपत्र के अनुसार पंवार वंश के 37वें वंशज अभय पाल ने तिलंग भट्टों को बदरीनाथ का तीर्थ पुरोहित होने का अधिकार दिया था।

धार्मिक मान्यता है कि देवप्रयाग से भगवान विष्णु के श्रीराम समेत पांच अवतारों का संबंध है। जिस स्थान पर वे वराह के रूप में प्रकट हुए, उसे वराह शिला और जहां वामन रूप में प्रकट हुए, उसे वामन गुफा कहते हैं।