पश्चिम बंगाल में आठ जुलाई को होने वाले पंचायत चुनावों को लेकर जारी खून-खराबे ने एक बार फिर राज्य में राजनीतिक हिंसा के मुद्दे की ओर ध्यान खींचा है। विश्लेषकों का मानना है कि बंगाल की राजनीति लंबे समय से हिंसा का शिकार रही है। विश्लेषकों ने कहा, ‘आर्थिक स्थिति और लंबे समय तक एक पार्टी के शासन जैसी वजहों से यह हिंसा काफी लंबे समय से राज्य की राजनीति में रची बसी हुई है।’
पंचायत चुनावों को लेकर हुई हिंसा में अब तक 10 लोगों की जान जा चुकी है और कई लोग घायल हुए हैं। राजनीतिक दलों के बीच झड़प और प्रतिद्वंद्वियों पर हमले बेहद आम हो गए हैं जो राजनीति और हिंसा के बीच घनिष्ठ संबंध को दर्शाता है। पश्चिम बंगाल में 2003 के पंचायत चुनाव 76 लोगों की मौत के कारण काफी चर्चा में रहे थे। चुनाव वाले दिन ही 40 से अधिक लोग मारे गए थे।
वहीं, केंद्रीय बलों की देखरेख में हुए 2013 के पंचायत चुनावों में 39 और 2018 में 30 लोग हताहत हुए थे। राजनीतिक विश्लेषकों और पूर्व नौकरशाहों का मानना है कि 50 वर्षों में राज्य की राजनीति विचारधाराओं की लड़ाई से ह्यधनवान और वंचितह्ण वर्ग की लड़ाई में बदल गई है। यही वजह है कि सिद्धांतों और आदर्शों को स्थापित करने के बजाय क्षेत्र में अपना वर्चस्व स्थापित करने की होड़ में विभिन्न दल हिंसा का रास्ता अपना रहे हैं।
राजनीतिक वैज्ञानिक मैदुल इस्लाम ने कहा, ‘पंचायत चुनाव अब सिर्फ हार जीत का मामला नहीं रह गए हैं। ये आजीविका और आर्थिक मजबूती से जुड़ गए हैं। पश्चिम बंगाल में औद्योगिक विकास न होने और बेरोजगारी बढ़ने के कारण ग्रामीण और अर्ध-शहरी क्षेत्रों में ज्यादातर लोग अपनी आजीविका के लिए सरकार और पंचायतों पर निर्भर हैं तथा पार्टियां इसका उपयोग एक दूसरे पर प्रभाव जमाने के लिए करती हैं।’
उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया कि महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम और अन्य ग्रामीण विकास योजनाओं के तहत मिलने वाला धन न केवल विकास का जरिया है, बल्कि यह ‘भ्रष्टाचार और हिंसा’ को बढ़ावा दे रहा है। सेंटर फार स्ट्डीज इन सोशल साइंसेज के सहायक प्रोफेसर इस्लाम ने कहा, ‘हर कोई इसमें से अपना हिस्सा चाहता है। चाहे विपक्ष हो या सत्तापक्ष, इससे ही हिंसा होती है।’
पांच साल पहले हुए पंचायत चुनावों में सत्तारूढ़ टीएमसी ने पंचायत की 90 फीसद और जिला परिषदों की सभी 22 सीटों पर कब्जा किया था। चुनावों में व्यापक स्तर पर हिंसा भी हुई। इस दौरान विपक्ष ने आरोप लगाया था कि उन्हें राज्यभर में कई सीटों पर नामांकन दाखिल करने से रोका गया। राजनीतिक विश्लेषक और रवीन्द्र भारती विश्वविद्यालय के प्रोफेसर बिश्वनाथ चक्रवर्ती ने कहा, ‘बंगाल में एक राजनीतिक दल के प्रभुत्व का एक लंबा इतिहास रहा है।
पहले कांग्रेस, फिर वामपंथी और अब टीएमसी। पिछले तीस वर्षों में वामपंथियों की बदौलत ग्रामीण इलाकों में अमीरों और गरीबों का एक वर्ग सामने आया है। ऐसे में अगर आप सत्तारूढ़ दल के साथ हैं और जीतने वाले के पक्ष में हैं तो आपको सभी लाभ मिलते हैं। यदि विपरीत पक्ष में हैं तो आपको लाभार्थियों की सूची से बाहर कर दिया जाता है। यह प्रवृत्ति अभी भी जारी है। बंगाल में राजनीतिक हिंसा का लंबा इतिहास रहा है।
1946 से 1948 तक भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व वाले तेभागा आंदोलन के समय से इसे देखा जा सकता है। इस दौरान कांग्रेस समर्थित जमींदारों और फसल में उचित हिस्सा मांगने वाले किसानों के बीच खून-खराबा हुआ था। जिला परिषद, पंचायत समिति और ग्राम पंचायत की लगभग 74,000 सीटों पर उम्मीदवार को चुनने के लिए करीब 5.67 करोड़ मतदाता शनिवार को अपने मताधिकार का उपयोग करेंगे।