ईश्वर किसी एक जाति या धर्म के बंधन से बंधे हुए नहीं हैं। जहां एक तरफ यह सत्य है तो दूसरी ओर कई भक्त और कवि भी ऐसे हुए हैं, जिन्होंने इसी परंपरा का जीवनभर निर्वाह किया। ऐसे ही एक कवि रसखान हैं। हिंन्दी साहित्य के मध्ययुगीन कृष्ण भक्त कवियों में रसखान की कृष्ण भक्ति की लोकप्रियता निर्विवाद है। बोधा और आलम के अलावा भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने जिन मुसलमान भक्तों के लिए कहा था कि इन मुसलमान हरिजनन पर कोटिन हिन्दू वारिए, उनमें रसखान का नाम सबसे ऊपर है। मुसलमान होते हुए भी रसखान कृष्ण की भक्ति में ऐसे डूबे कि वे हिन्दू और मुसलमान के बीच के सभी अंतरों को भूल गए।
यूं बने कृष्ण भक्त
कृष्ण भक्त रसखान मुस्लिम थे। इनके काव्य में भक्ति और शृंगार रस दोनों प्रमुखता से मिलते हैं। वे कृष्ण के सगुण और निर्गुण दोनों रूपों के प्रति श्रद्धा रखते हैं। रसखान के सगुण कृष्ण रूप, कृष्ण लीला में प्रचलित बाल लीला, रास लीला, फाग लीला, कुंज लीला आदि सभी प्रचलित लीलाएं करते हैं। उन्होंने अपने काव्य की सीमित परिधि में इन सभी असीमित लीलाओं को बखूबी बांध डाला है। किंवदंतियों के अनुसार, पठान कुल में जन्मे रसखान को माता पिता का स्नेह व सुख वैभव सभी कुछ उपलब्ध था। एक बार कहीं भगवत कथा का आयोजन हो रहा था। व्यास गद्दी पर बैठे कथा वाचक भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं का वर्णन कर रहे थे। उनके समीप ही भगवान श्रीकृष्ण का एक चित्र रखा था। रसखान भी उस आयोजन में पहुंचे।
व्यास गद्दी के समीप रखे कृष्ण के चित्र पर उनकी दृष्टि पड़ी तो वे जैसे मूर्ति बनकर रह गए। कथा की समाप्ति तक रसखान एकटक उसी चित्र को निहारते रहे। चित्र देखकर वे इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने व्यास पीठ पर बैठे कथावाचक से भगवान श्रीकृष्ण के बारे में पूछा और कृष्ण की खोज में ब्रज की ओर चल दिए।
ब्रज पहुंचने पर एक दिन वे कृष्ण दर्शन के लिए गोवर्धन गए। वहां मंदिर में प्रवेश करने लगे तो उन्हें इस्लामी परिधान धारण किया हुआ देखकर वहां से धक्के मारकर भगा दिया गया। दुखी रसखान गोविंद कुंड के पास जाकर बैठ गए और तीन दिन तक टकटकी लगाकर मंदिर की ओर ही देखते रहे। उनकी यह दशा देखकर भगवान प्रकट हुए। भगवान के दर्शन पाते ही वे भक्ति रस में झूमने लगे। ब्रज के गोकुल व गोवर्धन इलाकों में उन्हें संत व महात्माओं से सानिध्य मिला और फिर वे वृन्दावन स्थित श्री वल्लभाचार्य के पुत्र अरुणी के उत्तराधिकारी गोस्वामी विट्ठलनाथ की शरण में पहुंच गए।
अकबर के समकालीन थे
विभिन्न उपलब्ध स्रोतों के अनुसार व अकबर के समकालीन होने के नाते उनका जन्म साल 1533 से 1558 के बीच कभी हुआ माना जाता है। इनके जन्म स्थान के बारे में भी मतभेद हैं। कुछ साक्ष्यों के हवाले से इनका जन्म दिल्ली के समीप पिहानी स्थान पर माना जाता है तो कुछ अन्य मतानुसार यह स्थान उत्तर प्रदेश के हरदोई जिला स्थित पिहानी माना जाता है। रसखान का मूल नाम सैयद इब्राहिम था। एक ऐतिहासिक तथ्य के अनुसार शेरशाह सूरी का पीछा करने पर हुमायूं को कन्नौज के काजी सैयद अब्दुल गफूर ने आश्रय दिया था। इससे प्रसन्न होकर अपनी कृतज्ञता का भाव व्यक्त करते हुए हुमायूं ने गफूर को खान की उपाधि दी। संभवत: सैयद इब्राहीम इनके ही वंश के थे। नाम के साथ जुड़ा खान शब्द भी इसी वंशानुक्रम का प्रतीत होता है। वृंदावन में दीक्षा लेने के बाद वह यहीं के होकर रह गए। अपनी एक रचना में वह लिखते भी हैं कि…
मानुष हों तो वही रसखान, बसौं नित गोकुल गांव के ग्वारन।
जो पसु हौं तौ कहा बसु मेरौ, चरौं नित नंद की धेनु मंझारन।।
पाहन हौं तौ वही गिरि कौ जुधर्यौ कर छत्र पुरंदर कारन।
जो खग हौं तो बसेरौं नित, कालिंदी-कूल कदंब की डारन।
सुजान रसखान और प्रेम वाटिका उनकी उपलब्ध कृतियां हैं। रसखान रचनावली के नाम से उनकी रचनाओं का एक संग्रह भी मिलता है। उनके काव्य में कृष्ण के रूप माधुर्य, ब्रज की महिमा और राधा व कृष्ण की प्रेम लीलाओं का बेहतरीन वर्णन मिलता है। मथुरा जिले के महावन में इनकी समाधि हैं। गोकुल से महावन जाने वाले रास्ते में रसखान की छतरी के नाम से मशहूर उनकी यह समाधि आज भी हिंदू और मुसलमानों के बीच एकता का संदेश फैला रही है।
विभिन्न उपलब्ध स्रोतों के अनुसार व अकबर के समकालीन होने के नाते उनका जन्म साल 1533 से 1558 के बीच कभी हुआ माना जाता है। इनके जन्म स्थान के बारे में भी मतभेद हैं। कुछ साक्ष्यों के हवाले से इनका जन्म दिल्ली के समीप पिहानी स्थान पर माना जाता है तो कुछ अन्य मतानुसार यह स्थान उत्तर प्रदेश के हरदोई जिला स्थित पिहानी माना जाता है। रसखान का मूल नाम सैयद इब्राहिम था।
सुजान रसखान और प्रेम वाटिका उनकी उपलब्ध कृतियां हैं। रसखान रचनावली के नाम से उनकी रचनाओं का एक संग्रह भी मिलता है। उनके काव्य में कृष्ण के रूप माधुर्य, ब्रज की महिमा और राधा व कृष्ण की प्रेम लीलाओं का बेहतरीन वर्णन मिलता है। ब्रज के गोकुल व गोवर्धन इलाकों में उन्हें संत व महात्माओं से सानिध्य मिला और फिर वे वृन्दावन स्थित श्री वल्लभाचार्य के पुत्र अरुणी के उत्तराधिकारी गोस्वामी विट्ठलनाथ की शरण में पहुंच गए।