वेटरन एक्टर अनुपम खेर ने नेशनल अवॉर्ड लौटाने वाले फिल्ममेकर्स को कड़ी फटकार लगाई है। उन्होंने कहा कि अवॉर्ड लौटाने वाले कलाकारों ने सेंसर बोर्ड, जूरी, और दर्शक तीनों का अपमान किया है। दूसरी ओर अवॉर्ड लौटाने वाले दिबाकर बनर्जी, आनंद पटवर्धन समेत 10 फिल्मकारों का कहना है कि देश में असहिष्णुता लगातार बढ़ रही है।
गोविंद पानसरे और एमएम कलबुर्गी जैसे लोगों की हत्या हो रही है, लेकिन सरकार चुप है। इन फिल्मकारों से पहले करीब 35 साहित्यकारों ने भी दादरी में गौमांस रखने की अफवाह के चलते एक मुस्लिम की पीट-पीटकर हत्या और लेखक कलबुर्गी के कत्ल का विरोध जताने के लिए अवॉर्ड वापस कर दिए थे। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या विरोध का यह तरीका सही है? कहीं ये पब्लिसिटी पाने का हथकंडा तो नहीं? क्या राष्ट्रीय पुरस्कारों का इस प्रकार से अपमान किया जा सकता है? कहीं यह विरोध किसी राजनीतिक विचारधारा से जुड़े लोगों का हथकंडा तो नहीं है? या फिर वाकई देश के हालात इतने गंभीर हो चले हैं कि इस प्रकार के कदम उठाने के सिवाय और कोई चारा नहीं बचा है?
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