बहुमुखी व्यक्तित्व के धनी महामना मदन मोहन मालवीय एक शिक्षाविद् थे जिन्होंने काशी हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) की स्थापना की और ‘नरम दल’ और ‘गरम दल’ के बीच कड़ी का काम करते हुए स्वतंत्रता संग्राम के पथप्रदर्शकों में से एक बने।
दक्षिणपंथी हिंदू महासभा के प्रारंभिक नेताओं में से एक मालवीय समाज सुधारक और सफल सांसद थे। उन्हें हिंदू राष्ट्रवाद का समर्थन करने के लिए जाना जाता है।
मालवीय 1886 में कलकत्ता में कांग्रेस के दूसरे अधिवेशन में प्रेरक भाषण देते ही राजनीति के मंच पर छा गए। उन्होंने लगभग 50 वर्षों तक कांग्रेस की सेवा की। वह कांग्रेस के चार बार अध्यक्ष रहे जिसमें 1909 (लाहौर), 1918 (दिल्ली), 1930 (दिल्ली) और 1932 (कलकत्ता) शामिल है।
स्वतंत्रता संग्राम में मालवीय उदारवादियों और राष्ट्रवादियों तथा नरम दल और गरम दल के बीच के थे जैसा कि गोखले और तिलक के अनुयायियों को क्रमश: कहा जाता है।
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1930 में जब महात्मा गांधी नमक सत्याग्रह और सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू किया तो उन्होंने इसमें हिस्सा लिया और गिरफ्तारी दी।
1861 में प्रयाग (इलाहाबाद) के एक शिक्षित रूढ़िवादी परिवार में जन्मे मालवीय ने अपना करियर इलाहाबाद जिला विद्यालय में एक शिक्षक के रूप में शुरू किया।
मालवीय ने एलएलबी करके पहले जिला अदालत और उसके बाद उच्च न्यायालय में वकालत की। मालवीय ने अपने 50वें जन्मदिन पर अपनी सफल वकालत छोड़कर देश की सेवा करने का निर्णय किया।
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मालवीय के योगदान का उल्लेख करते हुए स्वतंत्रता सेनानी गोपाल कृष्ण गोखले लिखते हैं, ‘‘मालवीयजी का त्याग सही अर्थों में त्याग है। गरीब परिवार में जन्मे मालवीय महीने में हजारों रूपये कमाने लगे। उन्होंने विलासिता और धन का स्वाद लिया लेकिन बाद में देश के बुलावे पर सब कुछ छोड़कर गरीबी अपना ली।’’ उन्होंने अत्यंत प्रभावशाली अंग्रेजी समाचार पत्र ‘द लीडर’ की 1909 में स्थापना की जो इलाहाबाद से प्रकाशित होता था।
मालवीय इलाहाबाद नगरपालिका बोर्ड में सक्रिय रूप से शामिल रहे और वह 1903-1918 के दौरान प्रॉविन्शियल लेगिस्लेटिव काउंसिल के सदस्य, 1910-1920 के दौरान सेंट्रल काउंसिल, 1916-1918 के दौरान इंडियन लेगिस्लेटिव असेंबली के निर्वाचित सदस्य रहे। उन्होंने 1931 में दूसरे राउंड टेबल कॉन्फ्रेंस में हिस्सा लिया।
उन्होंने 1937 में सक्रिय राजनीति को अलविदा कहकर और अपना पूरा ध्यान सामाजिक मुद्दों पर केंद्रित कर दिया। उन्होंने विधवाओं के पुनर्विवाह का समर्थन तथा बाल विवाह का विरोध करने के साथ ही महिलाओं की शिक्षा के लिए काम किया। उनका 1946 में निधन हो गया।
