उत्तर प्रदेश के प्रयागराज में महाकुंभ का आयोजन शुरू हो चुका है। मेले के दूसरे स्नान पर्व मकर संक्रांति पर मंगलवार को सुबह से अखाड़ों के साधु संतों और श्रद्धालुओं का अमृत स्नान जारी है। प्रयागराज में इस बार महाकुंभ या पूर्ण कुंभ चल रहा है, जो हर 12 साल में आयोजित किया जाता है।
कुंभ मेले की शुरुआत के बारे में कई सिद्धांत हैं। कुछ लोगों का मानना है कि इसका उल्लेख वेदों और पुराणों में मिलता है। कुछ का कहना है कि यह बहुत हाल ही में शुरू हुआ है, बमुश्किल दो शताब्दियों पहले। आइए जानते हैं कुंभ मेला क्या है और यह चार शहरों में समय-समय पर क्यों आयोजित किया जाता है? अर्ध कुंभ और महाकुंभ क्या है? इसकी उत्पत्ति क्या है और लाखों लोग इसमें क्यों भाग लेते हैं?
कैसे शुरू हुआ था कुंभ मेला?
संस्कृत शब्द कुंभ का अर्थ है घड़ा या बर्तन। पौराणिक कथाओं के मुताबिक, जब देवों और असुरों ने समुद्र मंथन किया तो उससे धन्वंतरि अमृत का घड़ा लेकर निकले। इस बीच ताकि असुर इसे न पा लें, इंद्र के पुत्र जयंत घड़ा लेकर भाग गए। सूर्य, उनके पुत्र शनि, बृहस्पति (ग्रह बृहस्पति), और चंद्रमा उनकी और घड़े की रक्षा करने के लिए साथ गए।
जयंत के भागते समय अमृत चार स्थानों पर गिरा- हरिद्वार, प्रयागराज, उज्जैन और नासिक-त्र्यंबकेश्वर। वह अमृत की रक्षा में 12 दिनों तक भागते रहे। चूंकि देवताओं का एक दिन मनुष्यों के एक साल के बराबर होता है इसलिए सूर्य, चंद्रमा और बृहस्पति की सापेक्ष स्थिति के आधार पर हर 12 साल में इन स्थानों पर कुंभ मेला मनाया जाता है। प्रयागराज और हरिद्वार में हर छह साल में भी अर्ध-कुंभ का आयोजन होता है। 12 साल बाद होने वाले इस उत्सव को पूर्ण कुंभ या महाकुंभ कहा जाता है।
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इन चार स्थानों पर आयोजित होता है कुंभ मेला
ये चारों स्थान नदियों के तट पर स्थित हैं- हरिद्वार में गंगा है, प्रयागराज में गंगा, यमुना और पौराणिक सरस्वती का संगम है, उज्जैन में शिप्रा है और नासिक-त्र्यंबकेश्वर में गोदावरी है। ऐसा माना जाता है कि कुंभ के दौरान, आकाशीय पिंडों की विशिष्ट स्थिति के बीच इन नदियों में डुबकी लगाने से पाप धुल जाते हैं और पुण्य मिलता है।
कुंभ मेले का स्थान कैसे तय किया जाता है?
कुंभ मेले का स्थान ज्योतिषीय गणना पर निर्भर करता है। कुंभ मेले में 12 साल के अंतराल का एक और कारण यह है कि बृहस्पति को सूर्य के चारों ओर एक चक्कर पूरा करने में 12 साल लगते हैं। कुंभ मेला वेबसाइट के अनुसार, जब बृहस्पति कुंभ राशि में होता है और सूर्य और चंद्रमा क्रमशः मेष और धनु राशि में होते हैं तो हरिद्वार में कुंभ आयोजित किया जाता है।
जब बृहस्पति वृषभ राशि में होता है और सूर्य और चंद्रमा मकर राशि में होते हैं तो कुंभ प्रयाग में आयोजित किया जाता है। जब बृहस्पति सिंह राशि में होता है, सूर्य और चंद्रमा कर्क राशि में होते हैं तो कुंभ नासिक और त्र्यंबकेश्वर में आयोजित किया जाता है, यही कारण है कि इन्हें सिंहस्थ कुंभ भी कहा जाता है।
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क्या है कुंभ मेले का इतिहास?
कई लोग कुंभ मेले की प्राचीनता के प्रमाण के रूप में स्कंद पुराण का हवाला देते हैं। वहीं कुछ अन्य चीनी तीर्थयात्री ह्वेन त्सांग द्वारा सातवीं शताब्दी में प्रयाग में आयोजित मेले का वर्णन करते हैं।
बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) के ज्योतिष विभाग के प्रमुख प्रोफेसर गिरिजा शंकर शास्त्री ने कहा, “आज हम जिस कुंभ मेले को जानते हैं, उसका कोई भी उल्लेख निश्चित रूप से किसी भी शास्त्र में नहीं है। समुद्र मंथन का वर्णन कई पुस्तकों में मिलता है लेकिन चार स्थानों पर अमृत के छलकने का वर्णन नहीं मिलता। कुंभ मेले की उत्पत्ति को समझाने के लिए स्कंद पुराण का व्यापक रूप से हवाला दिया जाता है, लेकिन पुराण के मौजूदा संस्करणों में वे संदर्भ नहीं बचे हैं।”
अलग-अलग किताबों में कुंभ के इतिहास के अलग-अलग उल्लेख
दीपकभाई ज्योतिषाचार्य ने बताया कि गोरखपुर के गीता प्रेस द्वारा प्रकाशित पुस्तक महाकुंभ पर्व में दावा किया गया है कि ऋग्वेद में ऐसे श्लोक हैं जिनमें कुंभ मेले में भाग लेने के लाभों का उल्लेख है। कई लोगों का मानना है कि यह 8वीं शताब्दी के हिंदू दार्शनिक आदि शंकराचार्य थे जिन्होंने इन चार आवधिक मेलों की स्थापना की थी, जहां हिंदू तपस्वी और विद्वान मिलते थे, चर्चा करते थे, विचारों का प्रसार करते थे और आम लोगों का मार्गदर्शन करते थे।
ऑस्ट्रेलिया के न्यू साउथ वेल्स विश्वविद्यालय में दक्षिण एशियाई और विश्व इतिहास की एसोसिएट प्रोफेसर कामा मैकलीन ने लिखा है कि हालांकि ह्वेनसांग ने मेले का उल्लेख किया है लेकिन यह सुनिश्चित करने का कोई तरीका नहीं है कि वह कुंभ मेले का वर्णन कर रहे थे। उनका तर्क है कि प्रयाग में माघ मेले (हिंदू महीने माघ में आयोजित होने वाला मेला) का एक प्राचीन स्नान उत्सव आयोजित किया जाता था, जिसे शहर के पंडितों ने 1857 के विद्रोह के कुछ समय बाद कुंभ के रूप में पुनः ब्रांड किया ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि अंग्रेज इसमें हस्तक्षेप न करें।
‘कुंभ की उत्पत्ति गंगा की पूजा से जुड़ी हुई है’
हालांकि, सभी इतिहासकार इस बात से सहमत नहीं हैं। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में प्राचीन इतिहास के सेवानिवृत्त प्रोफेसर और सोसाइटी ऑफ पिलग्रिमेज स्टडीज के महासचिव प्रो. डीपी दुबे लिखते हैं कि हरिद्वार में होने वाले मेले को संभवतः सबसे पहले कुंभ मेला कहा गया होगा क्योंकि इस मेले के समय बृहस्पति कुंभ राशि में होते हैं।
प्रोफेसर दुबे ने इंडियन एक्सप्रेस को बताया, “कुंभ की उत्पत्ति उत्तरी मैदानों की महान जीवन शक्ति के रूप में गंगा की पूजा से जुड़ी हुई है। पवित्र नदियों के तट पर मेले वास्तव में एक प्राचीन हिंदू परंपरा है। धीरे-धीरे, यात्रा करने वाले साधुओं ने पवित्र नदियों के तट पर चार कुंभ मेलों का विचार फैलाया, जहां आम आदमी के साथ-साथ संन्यासी भी इकट्ठा हो सकते थे। तीर्थयात्रा के अलावा, इस तरह के विशाल समारोहों ने प्रभाव और अनुयायी अर्जित करने का अवसर भी प्रदान किया ।”
कुंभ मेले में क्या करते हैं तीर्थयात्री?
कुछ लोग पापों को धोने के लिए नदी में केवल एक बार स्नान करने आते हैं जबकि कई लोग, जिन्हें कल्पवासी कहा जाता है , नदी के किनारे रुकते हैं, ताकि वे भौतिक संसाधनों को कमाने की दैनिक लड़ाई से ब्रेक ले सकें और इसके बजाय कुछ आध्यात्मिक ज्ञान अर्जित कर सकें। कई लोग यहां विभिन्न प्रकार के दान देते हैं।
किसी भी बड़ी भीड़ के साथ व्यापार का मौका भी आता है, ऐसे में मेला स्थानीय समुदायों के लिए एक महत्वपूर्ण बाजार के रूप में भी काम करता है। ऐतिहासिक रूप से, मेला बाजारों में वेनिस के सिक्के और यूरोपीय खिलौने देखे जाने के रिकॉर्ड हैं। विभिन्न साधु अखाड़े शिविर स्थापित करते हैं । वे स्नान के लिए जाते हैं, जिसे शाही स्नान कहा जाता है , आम तौर पर इसका क्रम पहले से तय होता है।