तमिलनाडु की राजनीति के भीष्म पितामह एम. करुणानिधि नहीं रहे। सात अगस्त (2018) की शाम उनकी जिंंदगी की आखिरी शाम साबित हुई। वह 94 साल के थे। लंबे समय से बीमार थे और कई दिनों से चेन्नई के कावेरी अस्पताल में भर्ती थे। करुणा जब 14 वर्ष के थे तभी राजनीति में उनकी रुचि जगी। 20 वर्ष की उम्र तक उनकी दिलचस्पी काफी बढ़ गई थी। अन्नादुरई के संपर्क से उनकी राजनीतिक उड़ान काफी ऊपर तक गई। पर उनसे पहली मुलाकात का किस्सा बड़ा दिलचस्प है। बात 1942 की है। तब अन्नादुरई ने एक मैगजीन शुरू की जिसका नाम था- द्रविड़ नाडु। करुणानिधि इस मैगजीन के लिए लिखने के लिए बेताब हो गए। मैगजीन जहां से प्रकाशित होती थी उस जगह का पता उनके पास नहीं था, लेकिन करुणानिधि ने अपना लेख ”द्रविड़ नाडु, कांचिपुरम” लिख कर भेज दिया। चमत्कारिक ढंग से उनका लेख ‘इलामी बाली’ (युवाओं का बलिदान) के टाइटल से अगले ही हफ्ते प्रकाशित हो गया। करुणानिधि का उत्साह सातवें आसमान पर था। उन्होंने लिखा कि तब तक केवल चार-पांच लोग उनका लेख पढ़ते थे और सैकड़ों और हजारों लोग पढ़ेंगे।
दो हफ्ते बाद, अन्नादुरई तिरुबरूर में आयोजित एक कार्यक्रम में पहुंचे। अन्ना ने पूछा, ”कस्बे में अन्नादुरई कौन है? कृपया उसे लाएं, मैं उससे मिलना चाहता हूं।” करुणानिधि पहुंचे। जब अन्ना ने उन्हें देखा तो वह स्तब्ध रह गए थे। उन्होंने पूछा कि तुम पढ़ाई करते हो तो करुणानिधि ने कांपती हुई आवाज में जवाब दिया था- जी हां, मैं पढ़ता हूं। अन्ना ने जवाब दिया कि अब से मुझे लेख मत भेजना। उनका यह कहना अन्ना के ऊपर बम गिरने जैसा था। हालांकि, बाद के वर्षों में दोनों सगे भाइयों से भी ज्यादा घनिष्ठ हो गए।
बता दें कि पनागल आरासर जस्टिस पार्टी के संस्थापकों में से एक थे, जिन्हें द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (डीएमके) के प्रणेता के रूप में देखा जाता था। जस्टिस पार्टी के ही एक और संस्थापक पेरियार के 1926 के आत्म सम्मान आंदोलन के प्रति राज्य भर के छात्रों का आकर्षण बढ़ा। उन्हीं में से एक सीएन अन्नादुरई थे, जो कि मद्रास के पचईयप्पा कॉलेज में पढ़ते थे। उन्होंने आंदोलन और उसकी विचारधारा पर चर्चा में हिस्सा लिया तो उन्हें फायरब्रैंड वक्ता के तौर पर जाना जाने लगा। 1930 में अन्नादुरई ने कॉलेज में आत्म-सम्मान युवा निकाय का गठन किया। तिरुवरूर में जब करुणानिधी पांचवीं के छात्र थे तब भी राजनीति में उनकी दिलचस्पी थी। उस समय जस्टिस पार्टी चुनाव हार गई थी। स्वराज पार्टी को हराकर मद्रास में पहली कांग्रेस सरकार बनी थी। राजाजी मुख्यमंत्री बने और स्कूलों में हिंदी सीखना अनिवार्य बनाने के लिए कानून सामने आया। धीरे-धीरे हिंदी के खिलाफ राज्यव्यापी आंदोलन हुआ। आंदोलन में करुणानिधि ने भी भाग लिया। वहीं से उनके राजनीतिक सफर की भी बुनियाद पड़ गई थी।