नोएडा के सेक्टर-52 में रहने वाले आर तिवारी के किसी परिचित को हेपेटाइटिस के इलाज के लिए फर्रुखाबाद के एक डॉक्टर ने सोफोक्रुफ एलपी नाम की दवा लिखी थी। यह दवा वहां नहीं मिली। दवा महंगी होने के कारण नोएडा और दिल्ली के कुछ दुकानदारों के पास इसकी उपलब्धता का पता चला, लेकिन दुकानदारों ने दवा की कीमत अलग-अलग बताई। एक ही दवा की कीमत में 300-400 फीसद का अंतर बताया गया। कीमत में इतने अंतर के बाद उसके असली या नकली होने को लेकर भी मन में भ्रम आया। हारकर अपने एक परिचित दवा विक्रेता की सलाह पर दिल्ली से दवा खरीदी। उन्होंने बताया कि दवा के डिब्बे पर अधिकतम बिक्री मूल्य (एमआरपी) 26,449 रुपए था, जबकि दिल्ली के एक दवा विक्रेता से यह महज 7500 रुपए में मिल गई।

नोएडा के एक दुकानदार ने एमआरपी पर 20 फीसद की छूट पर दवा उपलब्ध कराने की पेशकश की थी। यानी तब उन्हें यह दवा 21 हजार रुपए की मिलती। यही नहीं, नोएडा के एक दुकानदार ने बिल मांगने पर इस दवा की कीमत 16500 रुपए मांगी थी। बिल नहीं मांगने पर दवा को 8 हजार रुपए में उपलब्ध कराने का दावा किया था। एक ही दवा की कीमत में 400 फीसद के अंतर के खेल से तिवारी का सिर चकरा गया। जानकारों का मानना है कि दवाओं की कीमत में अंतर की यह बानगी अकेले इस दवा में नहीं, बल्कि ज्यादातर जीवनरक्षक दवाओं में देखने को मिलती है। डॉक्टर की लिखी दवा किस कीमत पर मिलेगी, यह एमआरपी नहीं, बल्कि दवा विक्रेता तय कर रहे हैं। उन्होंने जीवनरक्षक दवाओं की कीमतों की विसंगति दूर करने के लिए प्रधानमंत्री को पत्र लिखने का फैसला किया है।

इस मामले में नोएडा के एक नामी दवा विक्रेता ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि ज्यादातर कैंसररोधी और जीवनरक्षक दवाओं की कीमत में अकेले एमआरपी मानक नहीं है। दवा की खपत, उपलब्धता और डिस्ट्रीब्यूटर या सीधे कंपनी से सप्लाई जैसी बातें ऐसी दवाओं की बिक्री कीमत तय करती हैं। मसलन एक दवा सीधे कंपनी से दुकानदार को मिलती है, तब उसकी कीमत में स्टॉकिस्ट या डिस्ट्रीब्यूटर का मुनाफा बच जाता है। ऐसे में दवा को दुकानदार एमआरपी से काफी कम दाम पर बेच देता है। काफी बड़ी देसी-विदेशी कंपनियों ने दवा बिक्री शृंखला (चेन) शुरू की है, जो मूल निर्माता कंपनी से एकमुश्त लाखों- करोड़ों रुपए मूल्य की दवा खरीदती है। ऐसे में कंपनी बेहद कम लाभ पर भी बेचने को तैयार हो जाती है। इन स्थितियों में दवा विक्रेताओं के लिए एमआरपी केवल मुनाफा बढ़ाने या छूट देकर ग्राहकों को खींचने का माध्यम बन जाता है।

गौतम बुद्ध नगर केमिस्ट एसोसिएशन के अध्यक्ष अनूप खन्ना ने दवा की कीमत में विसंगति के लिए केंद्र सरकार को जिम्मेदार ठहराया है। दवा की एमआरपी क्या हो, इसे तय करने का काम केंद्र सरकार का है। दवाओं के वास्तविक मूल्य और एमआरपी में 300-400 गुने का अंतर पूरी तरह से गलत है और इसे बंद किया जाना चाहिए। ड्रग प्राइस कंट्रोल आॅर्डर दवाओं की एमआरपी तय करता है। हालांकि एमआरपी पर दवा बेचने वाले दवा विक्रेताओं को किसी भी तरह से गलत नहीं मानकर उनका बचाव किया है। जानकारों का मानना है कि छोटे शहरों या दूर-दराज इलाकों में महंगी दवा लिखने वाले डॉक्टर मरीज को बाकायदा एक विक्रेता का मोबाइल नंबर भी उपलब्ध कराते हैं, जहां से मरीज को दवा एमआरपी या 10-20 फीसद की छूट पर मिलती है।