1990 के दशक में जब घाटी में आतंक चरम पर था तो विशेष पुलिस अधिकारी कुलवंत सिंह का परिवार यहीं डटा रहा। गांव में उन्हें भरोसा दिलाया गया था कि मुस्लिम पड़ोसी कभी उनसे मुंह नहीं मोड़ेंगे। शुक्रवार (21 सितंबर) को जब कुलवंत के परिवार पर दुखों का पहाड़ टूटा, पूरा गांव उनके दरवाजे पर था। 35 साल के सिंह व दो अन्य पुलिसकर्मियों को शोपियां में आतंकियों ने शुक्रवार को अगवा कर मार दिया था। एक दिन बाद, बता गुंड गांव के इकलौते हिन्दू परिवार के लिए पूरा गांव उमड़ पड़ा। किसी ने लकड़ियां काटी तो कोई जरूरी सामग्री जुटाने में लग गया, ताकि कुलवंत का अंतिम संस्कार किया जा सके।
सिंह के घर के पास दुकान चलाने वाले बशीर अहमद सेब के उस बगीचे में सबसे पहले पहुंचने वाले लोगों में थे, जहां कुलवंत की चिता को आग दी जाती थी। अहमद ने कहा, ”मैं आज यहां अपना फर्ज़ निभाने आया हूं। तो क्या हुआ अगर हमारे धर्म अलग हैं, हम इसी गांव में रहते आए हैं और इस वक्त में उनकी मदद करना हमारा फर्ज़ है।”
ठीक एक दिन पहले ही, अहमद अपने एक और पड़ोसी की कब्र खोद रहे थे। जम्मू-कश्मीर पुलिस के फॉलोअर फिरदौस अहमद कूचे को भी सिंह के साथ मार दिया गया था। कुलवंत के घर पर शनिवार सुबह से ही गांववाले जुटना शुरू हो गए थे ताकि अंतिम संस्कार में उनके बड़े भाई रणबीर और पिता ध्रुब देव की मदद कर सकें। महिला पड़ोसी सिंह की पत्नी, मां और बच्चों के साथ उन्हें ढांढस बंधाने बैठीं।
सिंह के अंतिम संस्कार के लिए एक दिन की छुट्टी लेकर आए गांववाले ने नाम न बताने की शर्त पर कहा, ”मैं छोटा था, तब से इस परिवार को जानता हूं। इस समय हम उन्हें अकेला कैसे छोड़ देते।” सुबह करीब साढ़े 10 बजे तक, जब कुलवंत का पार्थिव शरीर बगीचे में लाया गया, अधिकतर गांववाले जमा हो चुके थे। गांव के मुखिया मोहम्मद युसुफ बाबा ने कहा कि सिंह का परिवार दो दशक से भी ज्यादा समय ये यहां रह रहा है।
फरीदकोट में रहने वाले कुलवंत के चाचा ने कहा, ”हम परिवार के लिए जो कर सकते थे, वह किया।” चाचा के मुताबिक, ”मेरे भाई के परिवार ने कभी यहं गांव नहीं छोड़ा क्योंकि यहां वह सुरक्षित महसूस करते थे।”
