उच्चतम न्यायालय ने केन्द्रीय विद्यालयों में तीसरी भाषा के रूप में जर्मन के स्थान पर संस्कृत लागू करने के फैसले पर आज केन्द्र सरकार को यह स्पष्ट करने का निर्देश दिया कि दसवीं की बोर्ड की परीक्षा में शामिल होने वाले छात्रों पर इसका क्या असर होगा।

न्यायमूर्ति अनिल आर दवे और न्यायमूर्ति कुरियन जोसेफ की खंडपीठ ने कहा कि सत्र के मध्य में संस्कृत लागू करने के कारण किसी भी छात्र को परेशानी नहीं होनी चाहिए। न्यायालय ने अटार्नी जनरल मुकुल रोहतगी से कहा कि इस संबंध में आवश्यक निर्देश प्राप्त करके 16 दिसंबर को इसकी जानकारी दें।

न्यायालय ने केन्द्रीय विद्यालय के कुछ छात्रों के माता पिता के समूह की ओर से पेश वकील रीना सिंह की दलील सुनने के बाद यह निर्देश दिया। रीना सिंह का कहना था कि छात्रों को बोर्ड की परीक्षा देने से पहले तीन साल का भाषा पाठ्यक्रम पूरा करना होगा। उन्होंने कहा कि शैक्षणिक सत्र के मध्य में भाषा बदलने के कारण छात्र संस्कृत में तीन साल का पाठ्यक्रम पूरा नहीं कर सकेंगे और इसलिए उन्हें बोर्ड की परीक्षा में नहीं बैठने दिया जायेगा।

उन्होंने कहा, ‘‘आठवीं कक्षा में करीब ढाई साल से जर्मन भाषा का अध्ययन कर रहे छात्रों में अव्यवस्था फैल जायेगी क्योंकि अब उन्हें किस कक्षा तक तीसरी भाषा पढ़नी होगी। ये छात्र किस तरह तीन साल का पाठ्यक्रम पूरा करेंगे। इसका मतलब तो यह हुआ कि वे ‘अध्ययन की योजना’ के तहत सीबीएसई के 2014 के पाठ्यक्रम की शर्तो को पूरा किये बगैर दसवीं की बोर्ड की परीक्षा नहीं दे सकेंगे।

इससे पहले, केन्द्र सरकार केन्द्रीय विद्यालयों में जर्मन के स्थान पर तीसरी भाषा के रूप में संस्कृत लागू करने के अपने फैसले पर अडिग रही लेकिन उसने यह रियायत जरूर दी कि चालू सत्र में इस विषय के लिये कोई परीक्षा नहीं होगी। केन्द्र ने यह जवाब उस वक्त दिया था जब न्यायालय ने चिंता व्यक्त करते हुये कहा था कि इससे छात्रों पर बोझ बढ़ेगा लेकिन सरकार के फैसले के कारण बच्चों को परेशानी नहीं होनी चाहिए।