मथुरा, वृंदावन सहित संपूर्ण ब्रज क्षेत्र को भगवान श्री कृष्ण के बचपन की गतिविधियों के मुख्य केंद्र के रूप में जाना जाता है। लेकिन, इस काल में कृष्ण के कार्यों या कहें कि उनकी लीलाओं को समझने के लिए बल, पराक्रम और मर्यादा के प्रतीक उनके बड़े भाई बलराम के व्यक्तित्व को भी समझना बेहद जरूरी है। विभिन्न कथाओं के अनुसार बलराम को बल्देव, बलदाऊ आदि कई दूसरे नामों से भी जाना जाता है। बलराम वसुदेव और देवकी के सातवें पुत्र थे, जिन्हें कंस के अत्याचारों से बचाने के लिए योग माया के जरिए उनकी ज्येष्ठ पत्नी रोहिणी के गर्भ में प्रतिस्थापित किया गया था।

आधिकारिक रूप से भगवान श्री कृष्ण का जन्म भाद्रपद माह में कृष्ण पक्ष की अष्टमी को हुआ था, जबकि बलराम का जन्म उनसे पहले भाद्रपद माह के शुक्ल पक्ष में षष्ठी तिथि को हुआ माना जाता है। इस तरह, बलराम उम्र में भगवान श्री कृष्ण से 11 महीने और 16 दिन बड़े थे। कृष्ण के जन्मोपरान्त, पूरे ब्रज मंडल में उनकी लीलाएं अगले 10 साल तक बलराम के संरक्षण में ही चलती रहीं।

चूंकि, ब्रज भाषा की लोक संस्कृति में अपने से बड़े को सम्बोधन में ‘दाऊजी’ ही कहा जाता है, इसलिए बड़ा भाई होने के नाते उन्हें ‘दाऊजी’ भी कहा जाता है। कंस वध के बाद दोनों भाई ब्रज को छोड़कर गुजरात के रेवत पर्वत और फिर अग्नि पर्वत तथा बाद में लारका चले गए। वहां भगवान श्री कृष्ण ‘द्वारकाधीश’ कहलाए।

वहीं, बलराम का विवाह राजा रेवत की पुत्री रेवती के साथ विवाह हुआ। विवाहोपरांत, बलराम अपनी पत्नी रेवती के साथ बाबा नन्द और माता यशोदा के पास ब्रज में ही वापस आ गए। अत: ब्रज के संरक्षक होने से उन्हें ‘ब्रज राज’ की उपाधि से भी विभूषित किया जाता है। उदान्त चरित्र, पराक्रमी और न्यायप्रिय होने के कारण उस कालखंड में बलराम का बड़ा सम्मान था जो कि उनकी चारित्रिक विशिष्टता का परिचायक है। महाभारत के युद्ध के बाद ब्रज का शासन राजा परीक्षित के हाथों में आ गया और शासन का केंद्र हस्तिनापुर बना रहा।

दूसरी ओर श्रीकृष्ण के प्रपौत्र वज्रनाभ के मन में अपने पूर्वजों के जन्मस्थल के बारे में जानने की उत्कंठा जागृत हुई। वह द्वारका से हस्तिनापुर आए और अपना मंतव्य राजा परीक्षित से कहा।

परीक्षित ने ऋषि शांडिल्य के साथ उन्हें ब्रज भेजा। ऋषि शांडिल्य कृष्ण लीलाओं के प्रत्यक्षदर्शी थे। उन्होंने उन सभी स्थानों से वज्रनाभ को परिचित कराया। वज्रनाभ ने बलराम एवं श्री कृष्ण की स्मृति में चार स्थान चुनकर वहां उनकी मूर्तियों की स्थापना की। ये मूर्तियां करीब पांच हजार साल पुरानी प्रतीत होती हैं।

वक्त बदला और विदेशी आक्रांताओं के भारत पर आक्रमण शुरू हुए। इनमें महमूद गजनवी सबसे पहला था। गजनवी ने मथुरा एवं ब्रज के समस्त भूभाग पर खूब अत्याचार किए। उस समय इस इलाके को ‘महावन’ के नाम से पुकारा जाता था। पुराणों में इसे ‘वृहद वन’ के नाम से जाना जाता है। तब यहां राजा कूजचंद्र का शासन था। एक वीभत्स युद्ध के बाद राजा कूजचंद्र पराजित हो गए और महमूद गजनवी यहां के वैभव को अपने साथ गजनी ले गया। इसका वर्णन ‘तारीखे यामिनी’ में विस्तार से मिलता है।

इस दौरान श्री दाऊजी के यहां स्थित मंदिर में सेवारत शिक्षार्थियों ने देव विग्रहों को आततायियों से बचाने के लिए भूमिस्थ कर दिया। कालान्तर में, उन्हीं मूर्तियों को पुन: प्रतिष्ठित कर दिया गया। काल गणना के अनुसार यह समय संवत 1638 का मार्गशीर्ष माह के शुक्ल में मध्यान्त का दिन था। अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार यह तारीख 25 नवंबर 1581 है। साल 1582 में एक सर्वसाधनयुक्त देवालय का निर्माण कराया गया जो कि आज तक मौजूद है।

कालांतर में श्री दाऊजी की मान्यता बढ़ती गई तो मंदिर छोटा पड़ने लगा। परिणामस्वरूप, साल 1682 में एक नवीन मंदिर में इन मूर्तियों को प्रतिष्ठित कर दिया गया। तब से यहां राजा दाऊदयाल का पाटोत्सव मेले का आयोजन किया जाता है। इसे राहत पूनो मेला भी कहा जाता है। यह नवीन देवालय करीब पांच एकड़ जमीन पर बना है। यह राजपूत एवं ईरानी शैली के मिश्रित भवन निर्माण शैली का एक अद्भुत नमूना हैं।

बल्देव स्थित श्री हलधर समग्र दर्शन शोध संस्थान के निदेशक व मुख्य मंदिर के सेवायत डॉ. घनश्याम पाण्डेय बताते हैं कि औरंगजेब ने जब ब्रज के मंदिरों को ध्वस्त किया तो इसका लक्ष्य दाऊजी का यह देवालय भी था। मथुरा-वृन्दावन के समस्त प्राचीन देवालयों को तोड़ा गया। परंतु, वह दाऊजी महाराज के मंदिर तक नहीं पहुंचा। इस बारे में कई कहानियां प्रचलित हैं।

इन कहानियों का सार यह है कि उसे दाऊजी के चमत्कारों पर विश्वास करना पड़ा और उसने एक शाही फरमान जारी कर यहां साल 1712 में एक विशाल नगाड़खाने का निर्माण कराया। यह यहां अभी भी मौजूद है। जब ब्रज मंडल सिंधिया परिवार के अधिकार क्षेत्र में आया तो इस मंदिर की बाहरी दीवार की मरम्मत कराकर इसे और सुरक्षित कर दिया गया। इस संबंध में कई दस्तावेज आज भी यहां सुरक्षित रखे गए हैं।

आज के दिन यह स्थान मथुरा-एटा राजमार्ग पर एक शहर के रूप में पूर्ण रूप से विकसित किया जा चुका है। शहरों की सभी सुविधाएं यहां उपलब्ध हैं और इसे ‘श्री दाऊजी’ के नाम से जाना जाता है। चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से लेकर वर्ष पर्यन्त यहां देश-विदेश से श्रद्धालु आते रहते हैं।

सालभर विश्व प्रसिद्ध मेले और उत्सव यहां आकर्षण के केंद्र होते हैं। इनमें होली के दूसरे दिन से अगले तीन दिन तक ‘होरी का हुरंगा’, श्रावण के महीने में ‘झूला उत्सव’ बलदाऊ के जन्मदिवस पर भाद्रपद माह के शुक्ल पक्ष की षष्ठी को देवछट का मेला तथा बसंत पंचमी से लेकर रंगपंचमी तक कई कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है। इनके अलावा, गुरु पूर्णिमा उत्सव, कृष्ण जन्माष्टमी, दीपावली व फाल्गुनी होली भी पूरे उत्साह के साथ मनाए जाते हैं।