उत्तराखंड पर्वतीय राज्य का 67 फीसद हिस्सा जंगलों का है। यहां वन्यजीव और जंगल उत्तराखंड की पहचान हैं। जंगलों और वन्यजीवों को बचाने व उनके संरक्षण और संवर्धन के एवज में इस राज्य को ‘ग्रीन बोनस’ दिए जाने की मांग काफी समय से होती रही है। सबसे पहले 2009 में तब के मुख्यमंत्री रहे रमेश पोखरियाल निशंक ने यह मांग उठाई थी। तब लोगों ने इसे गंभीरता से नहीं लिया था।

साल 2013 में जब केदारनाथ हादसा हुआ, तब यह बात उठी कि राज्य की प्राकृतिक वनसंपदा, जंगलों, वन्यजीवों से छेड़छाड़ न की जाए और इनका संरक्षण किया जाए। निशंक द्वारा उठाई गई ‘ग्रीन बोनस’ की मांग को गंभीरता से लिया गया। फिर कई क्षेत्रों से केंद्र सरकार से राज्य की वन संपदा, वन्यजीवों को बचाने के लिए ‘ग्रीन बोनस’ देने की मांग की गई। पिछले दिनों जोशीमठ की आपदा के बाद अंधाधुंध विकास को रोकने की बात भी उठी।

वहीं, वन्य जीवों द्वारा फसलों को नुकसान पहुंचाने और लोगों पर हाथियों, तेंदुआ तथा अन्य वन्य जीवों द्वारा जानलेवा हमला करने की बात सामने आई। उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने यह बात स्वीकार की कि राज्य में मानव-वन्यजीव संघर्ष एक ज्वलंत समस्या बन चुका है और जहां जंगली जानवर मानव पर हमला कर रहे हैं। वहीं, जंगली बंदर राज्य की परंपरागत खेती के सबसे बड़े दुश्मन बने हुए हैं। इस कारण लोग पर्वतीय क्षेत्रों में पारंपरिक खेती छोड़ रहे हैं। राज्य सरकार मानव-वन्यजीव संघर्ष को रोकने तथा जंगली जानवरों से मानव और खेती की रक्षा के लिए कई कदम उठा रही है।

उत्तराखंड के वन मंत्री सुबोध उनियाल का कहना है कि राज्य में मानव-वन्यजीव संघर्ष को रोकने के लिए राज्य सरकार ने एक बड़ी पहल की है। इसके तहत राज्य के हर जिले में इसके लिए विशेष कार्यशाला की जा रही हैं। उत्तराखंड में इस संघर्ष को रोकने जंगलों और वन्यजीवों की सुरक्षा के लिए राज्य के जंगलात महकमे के साथ अन्य विभागों की भूमिका को लेकर राजाजी टाइगर रिजर्व की चीला रेंज में कार्यशाला के माध्यम से गहन मंथन की पहली बड़ी पहल की गई। इस महत्त्वपूर्ण कार्यशाला में जंगलात महकमे के साथ राजस्व, राज्य आपदा प्रबंधन विभाग उत्तराखंड पुलिस व एसडीआरएफ के जवानों ने आपात स्थिति के दौरान उनकी भूमिका पर चर्चा की।

उत्तराखंड जंगलात महकमे के प्रभारी ‘चीफ वाइल्ड लाइफ वार्डन’ रंजन मिश्रा, राजाजी के निदेशक साकेत बडोला, उपनिदेशक कहकशा नसीम, आपदा मिशन की वरिष्ठ अधिकारी मीरा कैंतुरा, वन्यजीव प्रतिपालक प्रशांत हिंदवान, रविंद्र पुंडीर व चीला वन क्षेत्राधिकारी शैलेश घिल्डियाल ने भी अपने विचार साझा किए।

उत्तराखंड के जंगलों की प्रामाणिक जानकारी रखने वाले सुनील पाल ने बताया कि मैदानी और पर्वतीय क्षेत्रों में मानव-वन्यजीव संघर्ष की समस्या लगातार बढ़ रही है और भोजन की तलाश में जंगली जानवर शहर की ओर या पहाड़ में बस्तियों की ओर अपना रुख करते हैं। इससे मानव-वन्यजीव संघर्ष बढ़ जाता है। पहाड़ों में जंगली जानवरों के कारण स्थानीय लोग पारंपरिक खेती करने से बच रहे हैं।

ेभट्ट, गहत, तोर तथा मडवा, झंगोरा और अन्य पारंपरिक पर्वतीय दालों तथा पहाड़ी सब्जियों को नहीं बो नहीं रहे हैं क्योंकि वन्य जीव खासकर जंगली बंदर और भालू इन फसलों को चट कर जाते हैं। खेती पर निर्भर रहने वाले लोग लगातार संकट में हैं। इस कारण पारंपरिक खेती पर भी पहाड़ों में संकट के बादल मंडरा रहे हैं।

रंजन मिश्रा का कहना है कि संघर्ष रोकने को लेकर राज्य सरकार ने अहम निर्देश दिए हैं। जंगली बंदर, गुलदार, बाघ, भालू, हाथियों व मधुमक्खियों के कारण कभी-कभी आपात स्थित पैदा हो जाती है। ऐसी आपात स्थिति के दौरान जंगलात महकमे के साथ अन्य विभागों के तालमेल को लेकर यह महत्त्वपूर्ण कार्यशाला की गई थी। आने वाले समय में इस कार्यशाला के परिणाम धरातल पर देखने को मिलेंगे।

राजाजी टाइगर रिजर्व के निदेशक साकेत बडोला का कहना है कि वन्यजीव संघर्ष के दौरान अन्य विभागों की स्थिति भी बहुत महत्त्वपूर्ण होती है। आपात स्थिति में अन्य विभागों के साथ आपसी समन्वय को लेकर कार्यशाला में गहन मंथन किया गया।मानव वन्यजीव संघर्ष को रोकने के लिए भविष्य में यह समन्वय कारगर साबित होगा।