ब्रिटिश राज के दौरान भारत में 500 से ज्यादा रियासतें थीं। इन रिसायतों के राजा, रजवाड़ों और राजघरानों के शौक निराले थे। किसी राजा को हथियार का शौक था तो किसी को हीरे-जवाहरात का। साल 1892 में जब पटियाला के महाराजा ने पहली बार फ्रांसीसी कंपनी डी-डियान से अपने लिए कार मंगवाई तो तमाम रियासतों, खासकर अमीर रजवाड़ों के बीच ये बात चर्चा का विषय बन गई।

धीरे-धीरे दूसरे राजा-महाराजाओं के बीच मोटरकारें शानो-शौकत का प्रतीक बनती गईं और जो कार इस प्रतीक का केंद्र बनी वो थी रॉल्स रॉयस। हिंदुस्तान के तमाम राज परिवारों में रॉल्स रॉयस खरीदने की होड़ मच गई। राजा-महाराजा रॉल्य रॉयस खरीदने के बाद इसमें अपने मन-मुताबिक तमाम बदलाव भी करवाने लगे। ऐसा ही एक बदलाव भरतपुर के महाराजा ने करवाया था, जिसे देख खुद माउंटबेटन भी दंग रह गए थे।

चर्चित लेखक और इतिहासकार डॉमिनिक लापियर और लैरी कॉलिन्स ने अपनी किताब ‘फ्रीडम ऐट मिड नाइट’ में भरतपुर के महाराजा की रॉल्स-रॉयस का विस्तार से जिक्र किया है। वे लिखते हैं कि भरतपुर के महाराजा की कार उस वक्त की सबसे आधुनिक कारों में से एक थी। इसकी बॉडी चांदी से बनी हुई थी और छत भी खुलने वाली थी।

महाराज अक्सर शादी-विवाह जैसे मौके पर अपनी बिरादरी के दूसरे राजे-रजवाड़ों को अपनी ये कार उधार दिया करते थे।

ऐसी ही एक और रॉल्स रॉयस उन्होंने खासतौर से शिकार खेलने के लिए तैयार करवाई थी। साल 1921 में प्रिंस ऑफ वेल्स और उनके नौजवान ए.डी.सी लॉर्ड लुई माउंटबेटन को महाराज अपनी इसी कार पर काले चीतल के शिकार के लिए ले गए थे। उस कार को देखकर माउंटबेटन भी हैरान रह गए थे। उन्होंने अपनी डायरी में भी इस किस्से का जिक्र किया था।

माउंटबेटन ने लिखा था, ‘वह मोटर कार खुले जंगली इलाकों में गड्ढे और बड़े-बड़े पत्थरों पर कूदती-फांदती इस तरह चली जा रही थी, जैसे समुद्री तूफानी लहरों पर कोई नाव जा रही हो।’ बता दें, भारत में मोटर कारों के चलन से पहले हाथी को ही शाही सवारी के रूप में देखा जाता था। राजा-महाराजाओं के पास एक से बढ़कर एक हाथी हुआ करते थे। मोटर कार आने के बाद हाथियों को उत्सवों और समारोहों तक सीमित कर दिया गया था।