होली की हुडदंग की खुमारी उतरी भी नहीं कि दूसरे दिन से ही गणगौर का त्यौहार आरंभ हो गया। इस पर्व को राजस्थानी लोग मनाते है। और इस मामले में भागलपुर किसी भी मायने में “मिनी राजस्थान” से कम नहीं है। राजस्थान में तो घर घर 18 रोज इस पर्व की धूम मची है। दिल्ली, मुंबई हो कलकत्ता या भागलपुर राजस्थानी समाज जहां है उनके लिए खासकर उनकी औरतों के लिए यह ख़ास है। नवविवाहिता गणगौर पूजन चैत्र शुक्ल दूज तक करती है और तीज को विदाई। पुरानी परम्पराओं के मुताबिक ये गणगौर और ईसर को पार्वती और शिव का रूप मानती है। विवाह के बाद पहली गणगौर मायके में पूजने का रिवाज है। एक नवविवाहिता के साथ 5-7 कुंआरी लड़कियां यह पूजन करती है। कुंआरी बालाएं अच्छे वर के लिए और विवाहिता अपने सुहाग के खातिर पूजती है। पूजा का विधान कुछ इस तरह है– सुबह उठकर सबसे पहले ये पूजारिनें दूब और पानी लाने आसपास के बगीचे में जाती है। उस वक्त ये गाती हैं:-
“करवा रै आठ कुआं नो बावैड़ी
करवा रै सोबा सौ पनिहार रै
सलामी कर या गहरो फ़ूल गुलाब को । ”
और दूब तोड़कर घर लौटने पर पूजन के समय गाती है :-
“गौर ऐ गणगौर माता खोल किबाड़ी
बाहर उभी रोआं- सोआं पूजन वाली।”
पूजा के दौरान गीतों की झड़ी रूकती ही नहीं है। यानी पहला गीत खत्म होता है तो तपाक से दूसरी , तीसरी पुजारिन की राग शुरू हो जाती है
” ईसरजी तो पेचो बांधे गोरा बाई पेच संवारे ओ राज,
म्हे ईसार थारी साली छां। ”
अठ्ठारह रोज तक चलने वाली इस पूजा के लिए इस बीच कुम्हार की चाक से मिट्टी लाकर ये गौरा और ईसर की मूर्ति बनाती है। इसी दौरान हरेक पूजने वाली लड़की के घर नम्बर से “बंदोरी” का खास आयोजन होता है। इस रोज बालाएं अपने माता पिता व् भाई भाभी और बहनों को तिलक लगाती है। जिसके बदले में उसे कुछ सौगात भेंट स्वरुप दी जाती है। लड़कियां घर में पकवान और हाथों में मेंहदी रचाती है और गाती हैं
“आवड़ देख बावड देख म्हारी गोरां याद करै। ”
यह गीत अंतिम रोज विदाई पर गाया जाता है। विदाई के पहले पूजारिनें सात कुओं से पानी लाकर गौरा और ईसार को पिलाती हैं। कुएं से पानी खींचते वक्त बड़ी राग से गाती हैं——-
” बाई ऐ गौरा थारा लंबा लंबा केश
कांगसियों थारो सिर चढयों जी राज।”
उमंगों के साथ इन मूर्तियों को वे गंगा या तालाब में प्रवाहित करती है। इससे पहले बाकायदा बाजे गाजे के साथ बारात निकलती है। जो शहर के हरेक मोहल्लों से गुजरती है। और औरतें मन से पूजा अर्चना कर चढ़ावा चढ़ाती है।
वैसे गणगौर पूजन का वक्त आने से कुछ दिनों पहले से ही नव विवाहिता अपने मायके जाने के लिए बैचेन सी रहती है। इसी प्रसंग में कहती हैं
” भंवर म्हानै पूजन दयो गणगौर
भंवर जी खेलन दयो गणगौर
भंवर म्हानै मांडण दयो गणगौर
म्हारी सखियां जोए वाट। ”
ऐसे में कोई भी पति मायके जाने से पत्नी को नहीं रोकता। मगर पत्नी जाते वक्त गणगौर पूजने के बाद आखरी रोज तक अपने मायके आने का मिल्न स्वरूप न्योता इस तरह देती हैं
“गणगौरया का मेला पर थे आया रहज्यों जी
ओ जी म्हारा छैल भंवर। ”
बायदवे पति इस बुलावे के बावजूद वक्त पर न पहुंच सका तो उसे गीतों में ताना सुनना पड़ता है
” निकल गई गणगौर मोल्यो मोड़ो आयो रै। ”
इसी तरह के राजस्थानी गीतों से एक पखवारा तक गूंजने वाला माहौल और नजारा देखते ही बनता है। यह लोक परंपरा है। और सदियों से चली आ रही है। आज के पश्चिमी सभ्यता वाले युग और फैशन के बदलते रूप में भी इस संस्कृति ने अपना स्वरुप नहीं खोया है। यह बहुत बड़ी बात और पूर्वजों की डाली मजबूत नींव ही दर्शाती है।
