रियो ओलंपिक खेलों में पीवी सिंधू ने बैडमिंटन में सिल्वर मैडल जीता। ओलंपिक में सिल्वर मेडल जीतने वाली वह पहली भारतीय महिला है। इन खेलों में सर्वाधिक सम्मान गोल्ड यानि सोने का मेडल जीतने वाले का होता है। इसके बाद सिल्वर मेडल और फिर ब्रॉन्ज यानि कांस्य पदक। मगर क्या आप जानते हैं कि गोल्ड मेडल में कितना गोल्ड होता है। या फिर सिल्वर मेडल में कितनी चांदी होती है। साथ ही यह सवाल भी है कि पदक देने की परंपरा कहां से शुरू हुई। एक और सवाल गोल्ड, सिल्वर और ब्रॉन्ज मेडल की क्यों दिए जाते हैं। ओलंपिक पदकों में बदलाव की कहानी भी उतनी ही शानदार है जितनी की चैंपियन खिलाडि़यों की।
क्या है पदक के अंदर की सच्चाई:गोल्ड मेडल में सोना केवल एक फीसदी होता है। बाकी इसमें 92.5 फीसदी चांदी और 6.5 प्रतिशत कॉपर यानि तांबा होता है। यदि पूरा मेडल सोने का होगा तो इसकी कीमत 22 हजार डॉलर यानि तकरीबन 14 लाख रुपये होगी जबकि वर्तमान में दिए जाने वाले मेडलों की कीमत केवल 564 डॉलर यानि लगभग 37 हजार रुपये। वहीं सिल्वर मेडल में 92.5 प्रतिशत चांदी और 7.5 प्रतिशत तांबा होता है। इसकी कीमत 330 डॉलर यानि 22155 रुपये होती है। ब्रॉन्ज मेडल में 97 फीसदी तांबा, 2.5 फीसदी जिंक और 0.5 प्रतिशत टिन होता है। 1912 के ओलंपिक आखिरी थे जिनमें शुद्ध सोने का मेडल दिया गया था।
ओलंपिक में पदकों की शुरुआत कब से हुई: प्राचीन समय में ओलंपिक विजेताओं को जैतून की शाखा दी जाती थी। ऐसा यूनानी देवता जीयस के सम्मान में किया जाता था। साल 1904 में सेंट लुइस में पदक देने की परंपरा शुरू की गई। इन खेलों का आयोजन अमेरिका ने किया था। इसमें साल 1896 और 1900 में जीतने वाले खिलाडि़यों को भी पदक दिए गए। खिलाडि़यों को मेडल के साथ ओलंपिक डिप्लोमा भी दिया जाता है।
ओलंपिक पदकों की डिजाइन का काम 1928 में शुरू किया गया। इसमें एक तरु विजय की डिजाइन में देवी बनी होती है। इस देवी के बांयी तरफ एक हथेली होती है तो दूसरी ओर जीतने वाले का ताज होता है। दूसरी तरफ, ओलंपिक विजेता को भीड़ से उठाया हुआ दिखाया जाता है। इसके बैकग्राउंड में ओलंपिक स्टेडियम होता है। 1960 तक मेडल विजेता को पहनाए नहीं जाते थे।