इंडियन हॉकी टीम के ‘दीवार’ पीआर श्रीजेश किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। इंडियन एक्सप्रेस के आइडिया एक्सचेंज में उन्होंने अपने 20 साल के करियर के दौरान संघर्ष समेत अन्य पहलुओं पर बात की। पीआर श्रीजेश ने अपने लड़कपने की कहानी भी बताई। उन्होंने बताया कि कैसे वह फिल्मों में हॉस्टल लाइफ की चकाचौंध देखकर हॉस्टल पहुंचे। फिर हॉस्टल की सच्चाई एकदम विपरीत निकली।
पीआर श्रीजेश ने बताया कि वह 8वीं क्लास तक पढ़ने में बहुत तेज थे। उन्होंने बोर्ड एग्जाम में 60 नंबर पाने के लिए स्कूल की हॉकी टीम ज्वाइन की। पीआर श्रीजेश को पता चला कि उन्हें हॉकी के इक्वीपमेंट खुद खरीदने पड़ेंगे तो गोलकीपर बनने पर पछतावा हुआ। उनके पिता ने गोलकीपर के इक्वीपमेंट गाय बेचकर खरीदी थी। इसके बाद पीआर श्रीजेश ने हॉकी को गंभीरता से लेना शुरू किया। उन्होंने तय किया कि वह अच्छा प्रदर्शन करेंगे।
श्रीराम वीरा ने पीआर श्रीजेश से सवाल किया : मैं आपको उस समय ले चलता हूं जब आप 12 साल के थे और हॉस्टल गए। आपने बहुत सपने देखे थे, लेकिन फिर घर की याद आने लगी, आप टूट गए। आप यह तय करने में तीन-पांच महीने लग गए कि कौन सा खेल खेलना है। क्या आप उस फेज के बारे में कुछ बताना चाहेंगे?
श्रीजेश ने हंसते हुए कहा, “उन दिनों केरल में फिल्मों में हॉस्टल लाइफ को दिखाया जाता था। लड़की के साथ बाहर जाना, फिल्में देखना, क्लास बंक करना, दोस्तों के साथ घूमना। मेरे माता-पिता सख्त थे इसलिए मैं उनसे दूर रहना चाहता था। स्कूल में दाखिला लेने के बाद मुझे एहसास हुआ कि हकीकत फिल्मों से एकदम विपरीत है। आपको अपने कपड़े धोने पड़ते थे, अपने बर्तन साफ करने पड़ते थे, अपनी यूनिफॉर्म इस्त्री करनी पड़ती थी, होमवर्क करने में कोई मदद नहीं मिलती थी। इसके अलावा आपको ट्रेनिंग के लिए जल्दी उठना पड़ता था। तो मैंने सोचने लगा कि मैं कहां आ गया, इससे अच्छा तो मैं घर पर ही रहता!”
श्रीजेश ने हॉकी चुनने पर कहा, ” वहां एक गोलकीपर था जिसने मुझसे कहा, श्री हॉकी में आओ केरल के लिए खेलना आसान है। हम एक अच्छी टीम हैं, हम रोजाना ट्रेनिंग करते हैं और हम किसी को भी हरा सकते हैं। आप आएं, और 10वीं कक्षा तक आप केरल के लिए राष्ट्रीय स्तर पर खेल सकते हैं। केरल में खिलाड़ियों के लिए एक खास योजना है। यदि आप अपनी राज्य टीम के लिए खेलते हैं, तो आपको स्कूल बोर्ड परीक्षा में 60 अंक मिलते हैं। मैं 8वीं कक्षा तक एक प्रतिभाशाली छात्र था, लेकिन जिस दिन मैंने हॉकी स्टिक उठाई, मैंने अपनी कलम नीचे रख दी! तो मेरे मन में विचार आया, ‘अरे, अगर मैं हॉकी खेलूंगा तो मुझे 60 अंक मिलेंगे। इस तरह मैं हॉकी में पहुंचा।”
श्रीराम वीरा ने पीआर श्रीजेश से सवाल किया : फिर एक क्षण ऐसा आया जब आपके पिता को आपके लिए प्रोटेक्टिव गीयर खरीदने के लिए अपनी गाय बेचनी पड़ी। क्या वहां से हॉकी को गंभीरता से लेना शुरू किया?
श्रीजेश ने जवाब देते हुए कहा, “वह मोड़ निश्चित रूप से कारणों में से एक था। मैं पहले केवल उन 60 अंकों के बारे में सोचता था। खेल के प्रति कोई वास्तविक प्रतिबद्धता नहीं थी। मैं जानता था कि अगर टीम अच्छा प्रदर्शन करेगी तो मैं अपने आप नेशनल की ओर बढ़ जाऊंगा, लेकिन एक बार जब मुझे पता चला कि स्कूल के इक्वीपमेंट अच्छे नहीं थे और मुझे अपना इक्वीपमेंट खरीदने की ज़रूरत है, तो यह एक दबाव की स्थिति थी। तब इसकी कीमत 3,500-4,000 रुपये थी, जो हमारे लिए बहुत बड़ी रकम थी। जब नई किट आई, तो उत्साह के साथ-साथ एक डर भी घर कर गया। मैंने सोचता था कि कोई गलत खेल या गलत पोजिशन (गोलकीपर के रूप में) तो नहीं चुनी है। हॉकी स्टिक 2000 रुपये के अंदर आ जाती, तो मैं गोलकीपर क्यों बना? लेकिन मैंने तय कर लिया कि मुझे अच्छा प्रदर्शन करना होगा, क्योंकि पापा ने मुझ पर बहुत पैसे खर्च किए हैं।”