वर्ष 1961 भारतीय खेलों के लिए खास था। इसी साल खेलों में देश का नाम रोशन करने वाले खिलाड़ियों को अर्जुन पुरस्कार देने की परंपरा शुरू हुई थी। इससे भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण था राष्ट्रीय खेल संस्थान, पटियाला का अस्तित्व में आना। सिस्टम बनाकर खिलाड़ियों को वैज्ञानिक तरीके से प्रशिक्षित किया जाए, इस सोच के साथ यह कदम उठा। इसके साथ ही चली आ रही राजकुमारी अमृत कौर स्पोर्ट्स कोचिंग स्कीम ठंडे बस्ते में चली गई।

खेलों में भारत का प्रदर्शन संतोषजनक नहीं माना गया। वजह ढूंढ़ने के लिए जुलाई 1958 में भारत सरकार ने तदर्थ समिति का गठन किया था। कौल-कपूर समिति ने कई देशों का दौरा करने के बाद एक केंद्रीय खेल संस्थान की सिफारिश की थी। अखिल भारतीय खेल परिषद ने समिति की सलाह पर पटियाला में राष्ट्रीय खेल संस्थान स्थापित करने की सिफारिश की। पटियाला के खेलप्रेमी महाराजा यादवेंद्र सिंह ने उदारता दिखाई। ढाई सौ एकड़ में फैले मोतीबाग प्लेस को उन्होंने मात्र 35 लाख रुपए में सरकार को दे दिया। इस कांप्लेक्स की कीमत इससे कहीं ज्यादा थी। 7 मई, 1961 को केंद्रीय शिक्षा मंत्री केएल श्रीमाली ने एनआइएस का उद्घाटन कर दिया। नेताजी की 78वीं वर्षगांठ पर इसका नाम बदलकर नेताजी सुभाष राष्ट्रीय खेल संस्थान, पटियाला कर दिया गया।

सफर अब 60 साल का हो गया है। इस दौरान भारतीय खेलों की प्रगति और विकास के लिए काम हुआ। उपलब्धियों और कमियों को साथ लेकर चलता हुआ यह संस्थान देश की खेल गतिविधियों का प्रमुख केंद्र बन गया। अंतरराष्ट्रीय मुकाबलों की तैयारी के लिए विभिन्न खेलों के खिलाड़ियों की पहली पसंद बन गया पटियाला। मामला सिर्फ प्रशिक्षण शिविरों तक ही सीमित नहीं रहा। यहां प्रशिक्षक तैयार होने लगे। कोचिंग डिप्लोमा के लिए देशी ही नहीं, विदेशी भी आने लगे। ख्याति बढ़ने लगी और अहमियत भी। शुरू में विदेशी विशेषज्ञों की भी सेवाएं ली गर्इं। देश को अनेकों अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय स्तर के क्रिकेटर देने वाले द्रोणाचार्य गुरचरण सिंह उस पहले बैच में थे जिसने 1961-62 में यह कोर्स किया था।

उन्हें कोचिंग के गुर सिखाने वाले थे आस्ट्रेलिया के ओह्णब्रायन जिनके तौर तरीकों की वह आज भी जमकर तारीफ करते हैं। गुरचरण ने एनआइएस और भारतीय खेल प्राधिकरण दोनों के बैनर तले दिल्ली के नेशनल स्टेडियम पर क्रिकेट प्रतिभाओं को निखारने का काम किया था। एनआइएस के दिल्ली केंद्र का तो ऐसा जलवा था कि ट्रेनिंग के लिए नेताओं और ऊंचे ओहदों पर पदासीन अधिकारियों की सिफारिशें पहुंचती थीं। लेकिन चयन योग्यता अनुसार ही होता था।

स्नाइप्स की बैठक में जब एनआइएस के क्षेत्रीय केंद्रों की बात चली तो फैलाव हुआ। बंगलुरु, दिल्ली, गांधीनगर, इंफल, कोलकाता और औरंगाबाद में सेंटर खुले। जयपुर में नौकायन, मनाली में विंटर स्पोर्ट्स सेंटर, शिमला में हाइ आलट्यिूट सेंटर के रूप में फैलाव हुआ। समय-समय पर जाने-माने विदेशी विशेषज्ञों के आने से एनआइएस का रुतबा बढ़ा। प्रमुख खेलों में उच्चस्तरीय प्रशिक्षक तैयार होने लगे जिनकी मांग अपने देश में ही नहीं, विदेशों में भी होने लगी। हजारों की संख्या से निकले कोच संस्थान से तो जुड़े ही, राज्य खेल परिषद, विश्वविद्यालय और नेहरू युवी केंद्रों से जुड़कर सेवाएं देने लगे। सर्टिफिकेट कोर्स से बड़ी संख्या में फिजिकल एजुकेशन टीचरों की कमी पूरी हुई।

पांच दशक पहले कभी जूनियर एथलेटिक्स शिविर में पटियाला में समय बिताने वाले अविनाश सिंह भी वहां की सुविधाओं से अभिभूत हैं। शांत वातावरण, बेहतरीन लाइब्रेरी, रहन-सहन और खान-पान की उम्दा व्यवस्था हर किसी का दिल जीत लेती थी। जब 1970 के दशक में हॉकी खिलाड़ी सुरजीत सिंह, बलदेव और वीरेंद्र सिंह ने बगावत कर जब राष्ट्रीय शिविर छोड़ा था तो भी पटियाला सुर्खियों में आया था। जब 1980 के दशक में प्रकाश पादुकोन आॅल इंग्लैंड बैडमिंटन खिताब जीतकर लौटे थे तो उन्होंने पटियाला में ही ट्रेनिंग की थी।

ऊंचे दर्जे के प्रशिक्षक उभारने के अलावा, अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक समिति का सॉलिडेरिटी कोर्स, क्लीनिक, सेमिनार, वर्कशाप, कांग्रेस का आयोजन होता रहा है। इसकी अहमियत आज भी बनी हुई है। चंद रोज पहले सादगी के साथ इसके 60वें साल के सफर की शुरुआत हुई। परिस्थितियां जश्न मनाने जैसे थीं भी नहीं। लेकिन आज भी आॅनलाइन कोचिंग कोर्स चल रहे हैं। राजसिंह बिश्नोई के मुताबिक इसे ‘सेंटर आॅफ एक्सीलेंस’ का रूप देना अगला लक्ष्य है।