संविधान शिल्पी और भारत के पहले कानून मंत्री डॉ. भीमराव रामजी अंबेडकर आजीवन जातिभेद, छुआछूत, गैरबराबरी के खिलाफ संघर्षरत रहे। उन्होंने कोलंबिया विश्वविद्यालय और लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स जैसे दुनिया के श्रेष्ठ शिक्षण संस्थानों से पढ़ाई की थी। बावजूद इसके उन्हें भारत में कार्यस्थल पर भेदभाव का सामना करना पड़ा। बड़ौदा में तो भीड़ ने उनकी जाति के कारण उन्हें मारने के लिए घेर लिया था।

क्या है पूरा मामला?

डॉ. अंबेडकर का जन्म 14 अप्रैल, 1891 को मध्य प्रदेश के मऊ में एक महार परिवार में हुआ था। महार जाति भारत की अधिसंख्य अछूत जातियों में शामिल है। अंबेडकर का परिवार सैन्य सेवा में था। उनके दादा और पिता दोनों ब्रिटिश इंडियन आर्मी में थे। लेकिन यह पद और प्रतिष्ठा ने भी अंबेडकर और उनके परिवार को जातिभेद के दंश से नहीं बचा पाया।

स्कूली पढ़ाई के दौरान अंबेडकर को भेदभाव का सामना करना पड़ा। पढ़ाई में अव्वल और अंग्रेजी के बेहतर ज्ञान की वजह से बड़ौदा के महाराज ने अंबेडकर को छात्रवृत्ति देकर विदेश पढ़ने के लिए भेजा। 1916 में कोलंबिया विश्वविद्यालय से डिग्री की पढ़ाई पूरी करने के बाद अंबेडकर पीएचडी के लिए लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स चले गए। वहां उन्होंने पीएचडी के लिए दाखिले तो ले लिया लेकिन उनकी छात्रवृत्ति खत्म हो गयी। मजबूरन उन्हें अपनी पढ़ाई को बीच में ही रोक कर भारत लौटना पड़ा।

छात्रवृति के एवज में अंबेडकर और बड़ौदा राज्य के बीच एक कॉन्ट्रैक्ट हुआ था। अंबेडकर को एक निश्चित अवधि तक बड़ौदा राज्य की सेवा करनी थी यानी राज्य की कोई नौकरी करनी थी। अनुबंध को पूरा करने के लिए अंबेडकर बड़ौदा पहुंचे। विदेश से पढ़कर लौटे नौजवान अंबेडकर को एक बार फिर जातिवाद का सामना करना पड़ा।

अंबेडकर को उनकी जाति के कारण बड़ौदा में कोई कमरा देने को तैयार नहीं था। अंतत: अंबेडकर को पारसियों की एक कॉलोनी में क्वार्टर मिला। लेकिन इसके लिए अंबेडकर को झूठ बोलना पड़ा। अपना नाम और पहचान छिपाना पड़ा। उन्होंने वह कमरा पारसी बनकर लिया था।

अंबेडकर बड़ौदा राज्य की नौकरी करने लगे लेकिन वहां भी उनके साथ छुआछूत होता रहा। ब्राह्मण कर्लक और दूसरे अधिनस्थ कर्मचारी उनके लिए खुलेआम अभद्र भाषा का इस्तेमाल करते। खुलेआम छुआछूत किया जाता। अंबेडकर को कागजों की फाइल दूर से फेंकर दी जाती ताकि संपर्क से बचा जा सके। इतना सब सहते हुए अंबेडकर अपना काम करते रहे। उनका कोई दोस्त नहीं बना था इसलिए वह अपना खाली समय लाइब्रेरी में बिताते थे।

पारसियों को पता चल गई सच्चाई

अमेरिकी मूल की भारतीय नागरिक और प्रसिद्ध समाजशास्त्री गेल ओमवेट अपनी किताब ‘अंबेडकर प्रबुद्ध भारत की ओर’ में लिखती हैं, “स्थिति उस दिन भयंकर हो गई जब पारसियों को अंबेडकर की जाति का पता चल गया। पारसियों के एक क्रुद्ध दल ने उनके आवास पर को चारों तरफ से घेर लिया, वे उन्हें मारने पर आमादा थे। घर के मालिक ने अंबेडकर को तत्काल अपने घर से निकाल दिया।”

डॉ. अंबेडकर को अपनी जान बचाने के लिए 17 नवंबर, 1917 को बड़ौदा राज्य छोड़ना पड़ा। इसके बाद विदेश से डिग्री लेकर आए अंबेडकर को नौकरी के लिए दर-दर भटकना पड़ा। कई सरकारी और प्राइवेट संस्थानों से रिजेक्ट किए जाने के बाद उन्हें सिदेंहम कॉलेज में राजनीतिक अर्थव्यवस्था के प्रोफेसर के रूप में नौकरी मिली। यहीं दो वर्ष नौकरी कर अंबेडकर ने 7000 रुपये जुटाए और कोल्हापुर के महाराज के 1500 रुपये की उपहार राशि लेकर पीएचडी पूरी करने लंदन वापस गए।