मोरारजी देसाई देश के छठे प्रधानमंत्री थे। 1977 में आपातकाल विरोधी हवा ने इंदिरा गांधी सरकार को उखाड़ फेंका, जिसके बाद मोरारजी देसाई जनता पार्टी द्वारा बनाई गई पहली गैर-कांग्रेसी सरकार के प्रधानमंत्री बने। हालांकि वे मात्र दो साल तक ही प्रधानमंत्री रह पाए।

15 जुलाई, 1979 को लोकसभा में जनता पार्टी की ताकत 539 सदस्यीय सदन में 223 से घटकर 200 से कुछ ज्यादा रह गई। इसके बाद प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने पद छोड़ने का फैसला किया और राष्ट्रपति एन संजीव रेड्डी को अपना इस्तीफा सौंप दिया।

राष्ट्रपति ने किया अनुरोध

संजीव रेड्डी ने इस्तीफा स्वीकार कर लिया लेकिन देसाई से अनुरोध किया कि देश को नया प्रधानमंत्री मिलने तक पद पर बने रहें। हालांकि दोपहर तक खुद देसाई अपने कई कैबिनेट सहयोगियों की इस सलाह को मानने को तैयार नहीं थे कि उन्हें पद छोड़ देना चाहिए।

स्थिति की समीक्षा के लिए संसदीय बोर्ड की बैठक सुबह होनी थी, लेकिन यह निर्णय लिया गया कि बैठक बुलाने से पहले उप प्रधानमंत्री जगजीवन राम को देसाई के साथ अंतिम बार बात करनी चाहिए। अपनी बातचीत के दौरान, देसाई ने कथित तौर पर यह विचार रखा कि वह अविश्वास प्रस्ताव पारित होने की आशंका में इस्तीफा देने के बजाय उसका सामना करना पसंद करेंगे।

इस्तीफों की लगी झड़ी

यह बात जगजीवन राम ने अपने कैबिनेट सहयोगियों को बताई। इसके बाद उद्योग मंत्री जॉर्ज फर्नांडीस और पर्यटन मंत्री पुरुषोत्तम लाल कौशिक ने देसाई को अपना-अपना इस्तीफा भेज दिया और लोकसभा स्पीकर के सामने मांग रखी कि सदन में उनके बैठके लिए (सत्ता पक्ष से अलग) अलग व्यवस्था की जाए।

अलगा इस्तीफा कृषि राज्य मंत्री भानु प्रताप सिंह का था। उन्होंने भी फर्नांडिस की तरह ही अपना इस्तीफा भेजा था। इन इस्तीफों के बाद देसाई ने कथित तौर पर विपक्ष के नेता वाईबी चव्हाण से सरकार के लिए समर्थन मांगा। लेकिन चव्हाण ने उनके प्रस्ताव को ठुकरा दिया।

चव्हाण के साथ देसाई की बातचीत का खुलासा कांग्रेस अध्यक्ष स्वर्ण सिंह ने एक संवाददाता सम्मेलन में किया, उन्होंने यह भी कहा कि कांग्रेस संसदीय बोर्ड के सदस्यों ने चव्हाण के रुख का समर्थन किया है।

उप प्रधानमंत्री ने ही गिना दी सरकार की विफलता

देसाई को पद छोड़ने के लिए मजबूर करने में डिप्टी पीएम द्वारा लिखा पत्र कारगर साबित हुआ। उन्होंने उस पत्र में सरकार की विफलताओं को सूचीबद्ध किया था।

इसके बाद जगजीवन राम ने देसाई से मुलाकात की, जहां उन्होंने देसाई को सूचित किया कि अगर देसाई ने मौजूदा हालात को स्वीकार करते हुए प्रतिक्रिया नहीं दी और नए नेता के लिए रास्ता नहीं बनाया तो उनके पास इस्तीफा देने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचेगा।

आडवाणी के साथ की बैठक

जिस बात ने अंततः देसाई को अपने सहयोगियों की सलाह मानने पर मजबूर किया, वह सूचना मंत्री लालकृष्ण आडवाणी के साथ उनकी एक बैठक थी। इससे पहले देसाई के लिए बिहार जनता पार्टी के प्रमुख सत्येन्द्र नारायण सिन्हा ने एक फार्मूला विकसित किया था जिसके तहत जनता पार्टी अविश्वास प्रस्ताव को निरर्थक बना सकती थी और साथ ही अपने विरोधियों को मात देने के लिए इसे कुछ समय के लिए टाल भी सकती थी।

अब संसदीय बोर्ड की बैठक बुलाई गई, जिसमें देसाई, पार्टी अध्यक्ष चंद्रशेखर, उप प्रधानमंत्री जगजीवन राम, विदेश मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और पार्टी महासचिव शामिल हुए। चरण सिंह कथित तौर पर दांत दर्द से पीड़ित होने के कारण बैठक में नहीं शामिल हुए। देसाई ने अपने कुछ करीबी दोस्तों को बताया कि पार्टी के कुछ नेताओं ने उनके साथ जैसा व्यवहार किया और धमकी दी, वह ब्लैकमेलिंग से कम नहीं है।

हालांकि देसाई ने कैबिनेट मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों और अन्य वरिष्ठ नेताओं के साथ विचार-विमर्श किया। निर्णय यह था कि वह राष्ट्रपति को अपना इस्तीफा सौंपेंगे।