जून 1911 में विनायक दामोदर सावरकर (Vinayak Damodar Savarkar) को ‘काला पानी’ (Kala Pani) की सजा के बाद अंडमान की सेल्युलर जेल ले जाया गया। वहां सावरकर को एक कुर्ता, पतलून सफेद टोपी दी गई। उन्हें कैदियों वाला बिल्ला नंबर मिला जो 32778 था। सावरकर (VD Savarkar) को अन्य कैदियों से इतर अकेली अंडाकार कोठरी में रखा गया था, उस कोठरी के एक कोने में फांसी देने का स्थान भी था।
चर्चित लेखक विक्रम संपत (Vikram Sampath), पेंग्विन पब्लिकेशन से प्रकाशित सावरकर की जीवनी में लिखते हैं कि जेल के अंदर सावरकर को जो पहली बात चुभी वो हिंदू और गैर हिंदू कैदियों के बीच धार्मिक परंपराओं को लेकर भेदभाव था।
हिंदू कैदियों के जनेऊ काट दिये जाते जबकि मुसलमानों को दाढ़ी रखने की इजाजत थी। हिंदू कैदियों को कट्टर मुस्लिम पहरेदारों और जमादारों की निगरानी में रखा था, जो कई बार कैदियों की पिटाई भी करते थे। उन्हें काफिर कहकर पुकारते थे।
सावरकर की वर्दी पर लिख दिया था ‘D’
सावरकर जिस वक्त सेल्युलर जेल (Cellular Jail) में गए, उस वक्त वहां करीब 100 राजनीतिक कैदी बंद थे। जेल के बैरी ने सावरकर का नाम ‘बम गोला नंबर 7 वाला’ रख दिया था। संपत लिखते हैं कि जेल के बैरी या अफसर सावरकर को जिस भी नाम से पुकारते हों, लेकिन दूसरे कैदी उन्हें ‘बाबू’ कहकर बुलाया करते थे और यह बात अफसरों को कतई पसंद नहीं आती थी। विनायक दामोदर सावरकर के कपड़ों पर ‘डी’ यानी डेंजरस अंकित कर दिया गया था। डेंजरस उपनाम के बावजूद सावरकर कैदियों के बीच ‘बड़ा बाबू नंबर 7’ के नाम से चर्चित हो गए थे।
कोठरी में करना पड़ता था पैखाना
जेल के अंदर सावरकर (Vinayak Damodar Savarkar) को सबसे ज्यादा तकलीफ पैखाने को लेकर हुई। कैदियों शाम को 7 बजे के बाद कोठरी में बंद कर दिया जाता था और सुबह 6 बजे ही दरवाजा खुलता था। उन्हें एक मिट्टी का पात्र दे दिया जाता था, उसमें बमुश्किल एक बार ही पैखाना कर सकते थे। विक्रम संपत लिखते हैं कि इस बीच किसी को पैखाना जाना हो तो जमादारों से झुककर मिन्नतें करनी पड़ती थीं। कई बार मजबूरी में कैदी अपनी कोठरी में ही पैखाना कर लेते थे और उसी कोठरी में रात भर पड़े रहते थे।
कोल्हू चलाते हुए हो गए थे बेहोश, आने लगा था सुसाइड का ख्याल
विक्रम संपत लिखते हैं सेल्युलर जेल में 6 महीने गुजारने के बाद कैदियों से बाहर का काम कराया जाता था, लेकिन सावरकर (Savarkar) के मामले में ऐसा नहीं हुआ। 15 जनवरी 1912 को नियमों के मुताबिक उन्हें बाहर निकाला जाना था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। बल्कि सावरकर से तमाम कठिन काम कराए जाते थे। गर्मी की एक ऐसी ही दोपहर को कोल्हू चलाते हुए सावरकर बेहोश हो गए। उनका शरीर दर्द से ऐंठा जा रहा था।
विक्रम संपत (Vikram Sampath) लिखते हैं कि सावकर को उस पल मृत्यु का एहसास हुआ। लगा कि इस तरह जीने से प्राण त्याग देना ही बेहतर है। उस रात, आत्महत्या के बारे में सोचते रहे। रातभर कश्मकश चलती रही और तय किया कि अगर मरना ही है तो देश के एक शत्रु को मारकर ही मरेंगे, कायर की तरह नहीं।