राममनोहर लोहिया इंडियन पॉलिटिकल हिस्ट्री के सर्वाधिक प्रभावशाली राजनेताओं में से हैं। उनका जीवन एक खुली किताब की तरह रहा है। जन्म से लेकर पढ़ाई और राजनीति से लेकर उनकी निजी मित्रता छुपी हुई चीज नहीं है। परिवार का लोहे का कारोबार था इसलिए सरनेम ‘लोहिया’ था।

लोहिया क्यों नहीं मनाते थे अपना बर्थडे?

राममनोहर लोहिया को असल में यह पता नहीं था कि उनके जन्म की तारीख क्या है। लेकिन 23 मार्च को अपनी जन्मतिथि मान ली थी। हालांकि लोहिया अपना जन्मदिन मनाते थे क्योंकि 23 मार्च को ही भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी हुई थी।

लोहिया बहुत छोटे थे तभी उनकी मां चंद्री का निधन हो गया था। पिता हीरालाल कांग्रेस से जुड़े थे और आजादी की लड़ाई को लेकर समर्पित थे। पिता का प्रभाव जल्द ही लोहिया पर दिखने लगा। गांधी के असहयोग आंदोलन के असर में जब मारवाड़ी विद्यालय (मुंबई) के छात्रों ने हड़ताल किया तो उनका नेतृत्व किशोर उम्र के लोहिया ने ही किया।

अकबरपुर से जर्मनी तक

लोहिया की प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा अपने गांव अकबरपुर (फैजाबाद) से हुई। वह अकबरपुर के टंडन पाठशाला और विश्वनाथ विद्यालय में पढ़े। इसके बाद पिता के साथ बंबई गए और वहां मारवाड़ी विद्यालय में नामांकन हुआ, जहां से 1925 में उन्होंने 61 फीसदी अंकों से मैट्रिक की परीक्षा पास की। इंटर की पढ़ाई के लिए बनारस हिंदू विश्वविद्यालय पहुंचे। 1927 में इंटर पास करने के बाद विद्यासागर महाविद्यालय कलकत्ता में एडमिशन लिया। लोहिया ने 1929 में बीए ऑनर्स अच्छे अंको से पास कर लिया।

पिता चाहते थे कि आगे की पढ़ाई के लिए वह अपने बेटे को विदेश भेजे। लेकिन पैसों की दिक्कत थी। कुछ धार्मिक संस्थानों से आर्थिक मदद मिलने पर लोहिया पढ़ाई के लिए इंग्लैंड चले गए। हालांकि भारतीयों के साथ अंग्रेजों का दुर्व्यवहार लोहियो को रास नहीं आया और वह एक अंग्रेज मित्र की सलाह पर पढ़ाई के लिए जर्मनी चले गए।

हिटलर की सभाओं में लोहिया

लोहिया ने जर्मनी के हंबोल्ट विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र में पीएचडी के लिए नामांकन कराया। तब इस विश्वविद्यालय में विश्व प्रसिद्ध वैज्ञानिक आइंस्टीन और जर्मन चिंतक शूमाकर प्राध्यापक हुआ करते थे। लोहिया के गाइड प्रसिद्ध जर्मन अर्थशास्त्री  डॉ. प्रो. जोम्बार्ट थे। लोहिया का टॉपिक था- ‘नमक-कर, कानून और सत्याग्रह’

तब जर्मन राजनीति में तानाशाह हिटलर के उत्थान का दौर था। जर्मनी की सोशल डेमोक्रेट और कम्युनिस्ट पार्टियां मिलकर भी हिटरल को नहीं रोक पा रही थीं। लोहिया का झुकाव सोशल डेमोक्रेट की ओर था। हालांकि कम्युनिस्ट भी उनके अच्छे मित्र थे।

राममनोहर लोहिया पर अपनी किताब में कुमार मुकुल लिखते हैं, “लोहिया कभी-कभार हिटलर की सभाओं में भी चले जाते थे। एक नाजी ने उन्हें एक बार भारत में नाजी विचारों का प्रचार करने की सलाह दी थी। इस पर लोहिया ने जवाब दिया था कि जर्मनी के अलावा दूसरे किसी भी देश में वंश और जाति की श्रेष्ठता को मानने वाला दर्शन शायद ही स्वीकृत होगा।”

सारा सामान हो गया चोरी

सन् 1933 में डॉक्टरेट की उपाधि पाने के बाद जब लोहिया अपनी किताबें बटोरकर जर्मनी से लौट रहे थे तो रास्ते में उनका सारा सामान चोरी हो गया। कुमार मुकुल बताते हैं कि ऐसे में जब लोहिया मद्रास पहुंचे तो उनके पास एक भी पैसा नहीं था, तब वे ‘द हिंदू’ (अखबार) के कार्यालय पहुंचे और दो घंटे वहीं बैठकर ‘फ्यूचर ऑफ हिटलरिज्म’ शीर्षक से एक लेख लिखा, जिसके लिए उन्हें 25 रुपए मिले। तब वे वहां से कलकता रवाना हुए।