श्रीलंका में हुए चुनाव में मार्क्सवादी नेता अनुरा दिसानायके देश के राष्ट्रपति चुने गए हैं। 2022 में आर्थिक रूप से बुरी तरह ध्वस्त होने के बाद श्रीलंका में यह पहला चुनाव था। अनुरा को 42.31% वोट मिले, जबकि साजिथ प्रेमदासा को 32.71% और मौजूदा राष्ट्रपति रानिल विक्रमसिंघे को केवल 17.27% वोट ही मिले। दिसानायके की पार्टी जनता विमुक्ति पेरामुना (जेवीपी) का रूख भारत विरोधी रहा है। दिसानायके मार्क्सवादी विचारधारा को मानने वाले हैं।
ऐसे में उनके राष्ट्रपति चुने जाने के बाद यह आशंका है कि क्या उनके नेतृत्व में श्रीलंका चीन के करीब जाएगा और भारत से दूर होगा? लेकिन पहले जानते हैं कि दिसानायके ने राजनीतिक जीवन में कितना संघर्ष किया और लोगों ने उन पर इतना भरोसा क्यों किया?
जेवीपी ने किया था सशस्त्र विद्रोह
55 साल के अनुरा दिसानायके का शुरुआती जीवन श्रीलंका के ग्रामीण इलाकों में बेहद मुश्किलों में बीता। वह गांवों के जीवन में संघर्ष करके आगे बढ़े और 1990 के दशक में विश्वविद्यालय पहुंचे। विश्वविद्यालय में दिसानायके की राजनीतिक सक्रियता बढ़ी और वह जेवीपी से जुड़ गए। जेवीपी ने 1971 और 1987-89 में श्रीलंका के अंदर सशस्त्र विद्रोह भी किया था।
जब जेवीपी ने लोकतांत्रिक राजनीति की ओर कदम बढ़ाए तो दिसानायके भी इसी राह पर आगे चल पड़े। अनुरा दिसानायके 1997 में जेवीपी के समाजवादी युवा संगठन के राष्ट्रीय आयोजक बने और सांसद बनते हुए 2014 में पार्टी के अध्यक्ष पद तक पहुंचे। जेवीपी के द्वारा 1971 और 1980 के दशक के अंत के किए गए हिंसक विद्रोहों को सरकार ने कुचल दिया था और इससे लंबे वक्त तक जेवीपी की छवि हिंसा वाली बनी रही।
दिसानायके को इस बात का श्रेय दिया जाता है कि उन्होंने पार्टी की छवि को आधुनिक बनाया, युवा मतदाताओं को पार्टी की ओर आकर्षित किया और भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाई। जेवीपी का फोकस सामंतवाद और साम्राज्यवाद को खत्म करने पर था जबकि दिसानायके का ध्यान आर्थिक मुद्दों पर था। विशेषकर श्रीलंका के ग्रामीण इलाकों और मेहनतकश तबके की खराब हालत पर।
श्रीलंका जब गंभीर आर्थिक संकटों का सामना कर रहा था तब दिसानायके अपनी बातों और मुद्दों के जरिए लोगों के बीच पहुंचे। श्रीलंका में जब आर्थिक हालात बहुत खराब हुए तो प्रभावशाली राजनीतिक लोगों के खिलाफ गुस्सा देखने को मिला। ऐसे में लोगों को इस चुनाव में दिसानायके में उम्मीद दिखाई दी।
क्या नेतृत्व करने के लिए तैयार है जेवीपी?
पिछले कई दशकों में ऐसा पहली बार हुआ है कि कोई मार्क्सवादी पार्टी श्रीलंका का नेतृत्व करेगी। लेकिन क्या पार्टी इसके लिए तैयार है। इसे लेकर अलग-अलग राय सामने आती हैं। कुछ लोग इसे लेकर चिंता जताते हैं कि जेवीपी अभी श्रीलंका की सरकार संभालने के लिए तैयार नहीं है क्योंकि उसमें अभी भी कट्टरपंथ की प्रवृत्ति है जबकि कुछ लोगों का कहना है कि जेवीपी अब कट्टरपंथ से निकलकर मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टी बन रही है।
नाम न बताने की शर्त पर कोलंबो में रहने वाले एक वरिष्ठ लेखक ने कहा कि जेवीपी के अंदर किसी तरह का लोकतंत्र नहीं है और वे लोग आलोचना नहीं बर्दाश्त कर सकते।
चीन के साथ कैसे रहेंगे श्रीलंका के संबंध
दिसानायके और जेवीपी का चीन और भारत के साथ संबंध भी आने वाले दिनों में एक अहम विषय रहेगा। जेवीपी का गठन 1960 के दशक में श्रीलंका की कम्युनिस्ट पार्टी सीपीएसएल के चीन समर्थक गुट से हुआ था। चूंकि अनुरा और जेवीपी की जड़ें मार्क्सवाद से जुड़ी हैं और ऐसे में अनुरा के नेतृत्व में चीन के साथ श्रीलंका के संबंध घनिष्ठ होंगे, ऐसी अटकलें हैं। लेकिन अनुरा ने संकेत दिया है कि विदेश के साथ उनके संबंध संतुलित रहेंगे और इसमें भारत भी शामिल होगा। लेकिन यहां बताना जरूरी होगा कि अतीत में जेवीपी का रूख भारत विरोधी रहा है।
भारतीय व्यवसायों को बनाया था निशाना
1980 के दशक में जेवीपी ने श्रीलंका में भारत के दखल का कड़ा विरोध किया था। तब श्रीलंका में भारतीय शांति सेना तैनात थी। उस दौरान जेवीपी ने श्रीलंका में भारतीय सामानों और व्यवसायों को निशाना बनाने के लिए अभियान चलाया था। जेवीपी ने 1987 में भारत-श्रीलंका शांति समझौते का भी विरोध किया था।
पूर्व राजनयिक और कोलंबो में पाथफाइंडर फाउंडेशन के प्रमुख बर्नार्ड गूनेटिलेक ने द इंडियन एक्सप्रेस को बताया कि जेवीपी ऐतिहासिक रूप से भारत विरोधी रही है। हालांकि बीते सालों में पार्टी कुछ परिपक्व हुई है। अनुरा दिसानायके फरवरी 2024 में भारत आए थे और विदेश मंत्री एस. जयशंकर और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल से मिले थे। चुनाव में जीत हासिल करने में अनुरा को उनकी ‘मिट्टी के बेटे’ वाली छवि का फायदा मिला।