चक्षु रॉय

1920 में दिल्ली निवासी अब्दुल माजिद ब्रिटिश सरकार की नज़र में आये। वह ऐसे व्यक्ति थे जिनका प्रशासन के रडार पर आना सामान्य बात नहीं थी। माजिद की मिठाई की दुकान थी। उन्हें कुछ लोग हलवाई भी कहते थे।

माजिद ब्रिटिश सरकार की नजर में कैसे आ गए थे? दरअसल, माजिद ने नवंबर 1920 के चुनाव में नामांकन पत्र दाखिल किया था। उनके विरोध में कुछ वकील और एक चूड़ी बेचने वाला खड़ा था। सरकार ने पहले तो माजिद और चूड़ी विक्रेता की उम्मीदवारी को गंभीरता से नहीं लिया।

लेकिन जब परिणाम आए तो ब्रिटिश सरकार के होश फाख्ता हो गए। माजिद ने 288 वोट हासिल करके अपने प्रतिद्वंद्वियों को पछाड़ दिया। दूसरे स्थान पर रहे वकील को 26 वोट मिले। आधिकारिक रिकॉर्ड में एक ब्रिटिश अधिकारी ने इस चुनावी मुकाबले को ‘अपेक्षाओं के विपरीत’ बताया था। इस जीत के साथ माजिद देश में सर्वोच्च कानून बनाने वाली संस्था के लिए चुने गए भारतीयों के एक चुनिंदा समूह में शामिल हो गए थे।

1920 चुनाव क्यों था खास?

1920 के चुनाव को भारत में डायरेक्ट इलेक्शन का प्रारंभिक बिंदु माना जाता है। उस समय तक औपनिवेशिक नीति विधायिका के लिए कुछ शिक्षित भारतीयों का चयन करती थी और उनके जरिए आम जनता की जरूरतों को समझने की कोशिश करती थी।

लेकिन, बीतते समय के साथ अंग्रेजी सरकार के लिए विधायिका में आम जनता के प्रतिनिधित्व के सवाल को नजरअंदाज करना मुश्किल होता जा रहा था। औपनिवेशिक प्रशासकों ने 1909 में सीमित चुनावों के माध्यम से भारतीय सदस्यों की संख्या बढ़ाकर इसका जवाब दिया था। अंग्रेजों का एक विवादास्पद उपाय मुसलमानों के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्र आवंटित करना था।

मोंटागु-चेम्सफोर्ड सुधार ने अपनी रिपोर्ट में क्या कहा था?  

भारतीय संवैधानिक सुधार 1918, जिसे मोंटागु-चेम्सफोर्ड सुधार के नाम से जाना जाता है, उसने 1909 की चुनाव प्रक्रिया की कमियों पर प्रकाश डाला था।

रिपोर्ट में कहा गया था, “वर्तमान में आम मतदाता शायद ही चुनाव प्रक्रिया का हिस्सा हैं। लगभग सभी को विशेष वर्गों या हितों का प्रतिनिधित्व करने के लिए डिज़ाइन किया गया है और इसमें बहुत कम व्यक्ति शामिल हैं। जो लोग मुस्लिमों का प्रतिनिधित्व करते हैं उनका उद्देश्य काफी हद तक समावेशी होना था लेकिन वे भी कुछ सौ मतदाताओं तक ही सीमित हैं।”

मोंटागु-चेम्सफोर्ड रिपोर्ट ने दो सदनों के साथ एक राष्ट्रीय विधायिका स्थापित करने की सिफारिश की। इस कानून बनाने वाली संस्था के एक सदन में जनता द्वारा सीधे निर्वाचित सदस्य होंगे। रिपोर्ट में निर्वाचित सदस्यों के साथ राज्य स्तर पर विधानमंडल स्थापित करने का भी सुझाव दिया गया है। ब्रिटिश संसद ने इन सिफारिशों को स्वीकार कर लिया और भारत सरकार अधिनियम, 1919 पारित किया। इन सिफारिशों के लागू होने के साथ, कानून निर्माताओं को लोगों द्वारा चुना जाना था। हमारे देश में पहले बड़े पैमाने पर चुनाव कराने के लिए सरकार को एक चुनावी ढांचे की आवश्यकता थी।

क्या बदल गया?

1919 के कानून और इसके तहत बनाए गए नियमों ने चुनाव प्रक्रिया की मूल बातें प्रदान कीं। साथ में उन्होंने मतदान करने और चुनाव लड़ने के लिए योग्यताएं, और मतदाता सूची तैयार करने की व्यवस्था निर्दिष्ट की। मतदान के लिए उम्र 21 वर्ष थी। चुनाव लड़ने के लिए यह 25 वर्ष थी। महिलाएं तब तक न तो मतदान कर सकती थीं और न ही चुनाव लड़ सकती थीं जब तक कि राज्य में विधानमंडल लिंग अयोग्यता को हटा नहीं देता (जो उन्होंने बाद में किया)।

कानून में विभिन्न निर्वाचन क्षेत्रों जैसे मुसलमानों और गैर-मुसलमानों (ग्रामीण और शहरी दोनों के लिए), सिख, यूरोपीय, भूमिधारक और चैंबर ऑफ कॉमर्स के लिए भी प्रावधान किया गया है। मतदाताओं और उम्मीदवारों को चुनाव में भाग लेने के लिए अधिवास, आय और संपत्ति रखने के मानदंडों को भी पूरा करना होता था।

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पहले आम चुनाव के दौरान मतपेटी में मतपत्र डालता एक मतदाता (Wikimedia Commons)