गुरु पूर्णिमा भगवान शिव द्वारा स्थापित ऐसा ज्ञानपर्व है, जिसमें व्यास परम्परा की जीवंतता है। यह ज्ञान की आराधना का पर्व है और सरल शब्दों में कह सकते हैं कि ज्ञानी अर्थात गुरु के प्रति निष्ठा और श्रद्धा समर्पण का पर्व है। हमारे जीवन में प्रज्ञा और श्रद्धा की दो धाराएं अनवरत एक साथ चलती हैं। इसलिए जो प्रज्ञावान हैं, हम उनका भी सम्मान करें और जो श्रद्धावान हैं वह भी हमारी धरोहर हैं। गुरु पूर्णिमा इस श्रद्धावान और प्रज्ञावान के संबंधों के पुनर्जागरण का दिन होता है। गुरु सामान्यतः महामानव होते हैं जिनकी कृपा से मानव यथार्थ जीवन संपन्नता प्राप्त करता है,आत्मिक पवित्रता प्राप्त करता है,प्रखरता प्राप्त करता है। इसलिए ऋषि व्यास जो महानतम ज्ञानी हैं “व्यासस्य रूपाय विष्णवे” उनकी वंशावली में, व्यास पूर्णिमा ‘गुरु पूर्णिमा कहलाती’ है।

जीवन में गुरु का महत्व

सामाजिक, नैतिक और बौद्धिक प्रगति के लिए प्रत्येक व्यक्ति के पास एक ‘गुरु’ का होना जरूरी है। आज का मनुष्य अधिक सुविधा-संपन्न, साधन-संपन्न है। वह कल्पना नहीं कर सकता कि आज के कुछ सौ वर्ष पहले व्यक्ति कितने अभाव में था। परंतु सुख-संतोष की दृष्टि से देखेंगे तो आज मनुष्य पूर्व से कहीं ज्यादा दीन-हीन, मलीन हो गया है।  कारण यह है कि सामाजिक, नैतिक, बौद्धिक क्षेत्रों में घुसी हुईं भ्रांतियां हैं, मानवीय गरिमा को गिराने वाला आचरण है, मर्यादाओं की तोड़ने वाली परंपराएं इतना चिपक गई हैं कि व्यक्ति और परिवार में संवेदना का स्रोत ही सूखता जा रहा है।

यहां पर एक बात और बताना समीचीन है कि दुनिया की बीस प्रतिशत से ज्यादा आबादी जो वयस्क है वह कही न कहीं अवसाद से पीड़ित है। अवसाद से मुक्ति के लिए हमें गुरु अथवा दूसरे रूप में कह सकते हैं ‘डॉक्टर’ चाहिए। गुरु से तात्पर्य एक पथ प्रदर्शक से है जो जीवन के विभिन्न आयामों में आपको सच्ची राह दिखा सके। हमारे यहां कहा गया है..

” गुरु बिनु भवनिधि तरइ न कोई।
 जउ बिरंचि संकर सम होई ।।

अर्थात गुरु सबके लिए अनिवार्य हैं। वह गुरु जो सत-असत, ज्ञान-अज्ञान का विभेद कर सके, उसका विस्तृत ज्ञान इतना हो कि वह संपूर्ण परिस्थितियों का जानने वाला हो तभी जाकर वह मार्गदर्शक बन सकता है। उसके ज्ञान का रोपण आपमें तभी हो सकता है जब उसके प्रति आप में अपार श्रद्धा हो। वह श्रद्धा वही है, जिसके सहारे एकलव्य द्रोणाचार्य की प्रतिमा को असली समझ कर कुशल धनुर्धर बने और रामकृष्ण परमहंस, जिस श्रद्धा से पत्थर की महाकाली में भोग लगाते थे। श्रद्धा प्राण तत्व होता है, समर्पण का।

आज गुरु पूर्णिमा पर इस समर्पण और श्रद्धा के साथ हम अपने नैतिक, बौद्धिक और सामाजिक विकास की राह में जो रोड़े हैं उनको दूर करने के लिए समर्थ गुरु की तलाश करें। भगवान शिव ने जो ज्ञान मुनियों को दिया ,था इस गुरु पूर्णिमा की प्रारंभिक सोपान है। इसकी सार्थकता भी यही थी की गुरु कोई भी हो सकता है। यहां यह बताना समीचीन है क्योंकि दत्तात्रेय ने तो पेड़, पौधे, वायु, आकाश सारे लोगों को गुरु की संज्ञा देकर  ज्ञान लिया था और इनको गुरु मानकर चौबीस गुरुओं का वर्णन भी किया है।

अब दूसरा पक्ष गुरु कौन? गुरु वह जो संपूर्ण ब्रह्मांड में व्याप्त है, जो सचराचर में व्याप्त है। इसलिए हमारे यहां कहा गया है।

“अखंडमंडलाकारम व्याप्तम येनचराचरम्।
तदपद्म दर्शितं येन तस्मै श्री गुरुवे नमः।।

यहां गुरु के विराट स्वरूप का वर्णन है। यत्र तत्र सर्वत्र उसकी प्राप्ति और उसका सचेतन, जो अहर्निश आप को सुधारने का प्रयास दर्शाता है। आज के  इस वैज्ञानिक युग में भी जितने अनुसंधानकर्ता हैं, जितने वैज्ञानिक हैं, जितने प्रशिक्षक-आचार्य हैं, जीवन के विभिन्न आयाम में.. चाहे वह संस्थागत हों या गैर संस्थागत हो जो भी शिक्षा देता है वे सभी गुरु हैं। आवश्यकता है, हमें श्रद्धा और समर्पण की।

गुरु जीवनचर्या में परिवर्तन करता है, जब मनुष्य किसी गुरु से जुड़ जाता है तो उसका अहंकार पिघल जाता है। उसके विकार, निरापद हो जाते हैं। उसकी मनस्थिति स्वयं में पूर्णता प्राप्त करने लगती है। उसके आत्मिक प्रगति के द्वार खुल जाते हैं। नैतिकता बंधुत्व प्रेम उसके मन में अनायास आने लगते हैं। आज की जो समस्त समस्याएं हैं, उसका समाधान उसके के लिए उसके पास दूरदर्शितापूर्ण दृष्टि से ही आ जाती है, उसका प्रमाण मिलने लगता है। अंतर प्रेरणा मिलती है और प्रेरणा से ही मनुष्य आगे बढ़ता है। गुरु नव निर्माण का स्त्रोत है और विशेष करके गृहस्थाश्रम में यदि गुरु बनाया जाए तो और  महत्वपूर्ण है, क्योंकि कहा गया है..

“धन्येगृहस्थआश्रम” यानी गृहस्थ आश्रम धन्य है। क्योंकि सबके जीवन यापन का संसाधन यही आश्रम देता है। गुरु के दर्शन से जिज्ञासाओं का बोझ उतर जाता है, घमंड समाप्त हो जाता है।

सच्चा गुरु कौन?

सच्चा गुरु वह है जो आध्यात्मा और प्रगति दोनों को दो हाथ में लेकर एक साथ चले, क्योंकि बिना अध्यात्म और बिना प्रगति के सच्चा विकास पथ प्रशस्त नहीं हो सकता। गुरु उलझने का मार्ग नहीं सुलझने का मार्ग प्रदान करता है। आत्मबल और आत्म शक्ति प्राप्त करने का एकमात्र सूत्र गुरु होता है। एक सामान्य रूप से अगर जीवन दर्शन में सोचा जाए तो जैसे किसी बर्तन को ढालने से पहले गलाई की जाती है और तब ढलाई की जाती है,  गुरु हमारे जीवन में वही गलाई और ढलाई सहज सरल रूप से करता है। परंतु विश्वास आवश्यक है। विश्वास हो जाए तो आपका कार्य स्वयं बढ़ता चला जाएगा। गुरु ही एकमात्र आधार है जो आपके सामने जो जड़ प्रतिमाएं हैं, ईश्वर की उसमें चेतनता प्रदान करता है। नियंता का भाव प्रदान करता है।

एक सच्चे गुरु को  राष्ट्र की पीड़ा हमेशा बनी रहती है। उसके मन में संपूर्ण राष्ट्र वेदना दिखाई देती है। वह कभी व्यक्ति उत्थान की बात नहीं करता है, उसमें हमेशा राष्ट्र के उत्थान के लिए जो आवश्यक है उसकी दिनचर्या तपस्चर्या हमेशा समाहित रहती है। मदन मोहन मालवीय, महर्षि अरविंद, रामकृष्ण आदि ऐसे ही गुरु थे जो जीवन भर राष्ट्र की पीड़ा को, मानवता की पीड़ा को शमन करने का उद्देश्य अपने मस्तिष्क में बनाए रखे। हमारे यहां सामान्य तौर पर कहा जाता है कि अगर कोई जिज्ञासु व्यक्ति का हाथ सद्भावसहित कोई गुरु पकड़ ले तो साधना सवमेव सिद्ध हो जाएंगें।

श्रम व साधना प्राप्ति का मतलब व्यक्ति अपनी पूर्णता को प्राप्त हो जाता है और व्यक्ति में संयम -श्रद्धा ज्ञान -विज्ञान के विवेक से नीर क्षीर  करने के लिए उसके अंदर वह पांडित्य विकसित हो जाता है, इसलिए इस गुरु पूर्णिमा पर हम अपने जीवन क्षेत्र में गुरु के प्रति अपार श्रद्धा रख कर, प्रकृति के प्रपंच में ना पड़कर, परपीड़ा में ना पड़कर, तुच्छ स्वार्थो से मुक्त होकर गुरु कृपा से परोपकारी और परमार्थी बनें। आपके कृत्य से जब आम जन के लिए सुख-शांति, सफलता, समुन्नति के द्वार खुल जाएंगे तब आप भी शिष्य से गुरु बन जाएंगे… यही गुरुपूर्णिमा का निहितार्थ है।

(प्रो. आरएन त्रिपाठी, बीएचयू के समाजशास्त्र विभाग में प्रोफेसर और उत्तर प्रदेश लोकसेवा आयोग के सदस्य हैं।)