19वीं शताब्दी के मध्य की बात है। कलकत्ता (अब कोलकाता) के वैद्य एस.के. बर्मन को दवा बनाने का बहुत शौक था। वह अक्सर विभिन्न जड़ी-बूटियों और पौधों के साथ मनगढ़ंत दवाएं बनाने में बिताते थे। आस-पास के लोग उन्हें डाकटर (डॉक्टर) कहने लगे। उन दिनों मलेरिया और हैजा जैसी बीमारियों को प्रकोप था। बर्मन इन्हीं बीमारियों से लड़ने वाली आयुर्वेदिक दवाओं को बनाने में जुटे रहते थे।

आम लोगों की आर्युवेद में आस्था थी। बर्मन की दवाई सस्ती भी होती थी, जिससे गरीब लोगों को मदद मिलने लगी। अब एस.के. बर्मन अपने इस पेशे को लेकर सीरियस हो गए।  जैसे-जैसे उनकी दवाएं अधिक से अधिक लोगों को ठीक करने लगीं, उन्होंने दूर-दराज के गांवों और कस्बों में रोगियों तक पहुँचने के तरीकों के बारे में सोचा। उन्होंने लोगों को मेल-ऑर्डर के जरिए दवा भेजना शुरू कर किया। एस.के. बर्मन का यह आइडिया काम कर गया।

डाबर कंपनी कैसे बनी?

एस.के. बर्मन ने साल 1884 में डाबर कंपनी की स्थापना की थी। उन्होंने कंपनी का नाम डाकटर (Daktar) शब्द के पहले दो अक्षर और अपने सरनेम बर्मन (Burman) के शुरुआती तीन अक्षर को मिलाकर रखा। इस तरह कंपनी का नाम Dabur पड़ा। तीन दशक बाद 1919 में एस.के. बर्मन के बेटे सी.एल. बर्मन ने दवाओं के अनुसंधान और विकास के लिए एक इकाई की स्थापना की। सी.एल. ने दवाओं को बनाने के लिए मशीनें लगाईं। कारोबार बढ़ने लगा। अधिक से अधिक लोग डाबर के प्रोडक्ट्स का इस्तेमाल करने लगे।

संयुक्त परिवार से मिली डाबर को तरक्की

डाबर की कामन धीरे-धीरे सी.एल. बर्मन के दो बेटों पूरन और रतन चंदन ने संभाली। दोनों का काम बंटा हुआ था। पूरन दवाओं के निर्माण का काम देखते थे। जबकि रतन का काम यह सुनिश्चित करना था कि दवाएं मार्केट में अच्छे से बिकें। कंपनी ने 1940 के दशक में ‘डाबर आंवला हेयर ऑयल’ लॉन्च किया। यह देश में अपने तरह का पहला प्रोडक्ट था। कारोबार बढ़ रहा था और परिवार भी।

बर्मन परिवार की तीन पीढ़ियां एक साथ एक घर में रहती थीं। यानी कुल सात परिवार एक ही छत के नीचे रहते थे। हालांकि परिवारों के पास अलग-अलग रहने की जगह थी, फिर भी वे हर दिन एक साथ खाना खाते थे। वे अक्सर अपने व्यवसाय को बेहतर बनाने के तरीकों और साधनों पर चर्चा करते थे। परिवार के हर बड़े ने कारोबार चलाने के लिए छोटों को तैयार किया। यह प्रथा कई वर्षों तक चलती रही।

नक्सल आंदोलन और डाबर का विस्थापन

कलकत्ता (अब कोलकाता) से चलने वाली डाबर कंपनी पर 1960 के दशक के अंत में संकट के बादल छाए। दरअसल, पश्चिम बंगाल में शुरू हुए नक्सली आंदोलन के कारण कलकत्ता में राजनीतिक और सामाजिक उथल-पुथल था। ट्रेड यूनियन बहुत मुखर और कभी-कभी आक्रामक हो भी रहे थे। श्रमिक वर्ग व्यवसायियों को अपना वर्ग शत्रु मानने लगा था। उद्योग धंधे बंद होने लगे। प्रसिद्ध बिड़ला समूह और भारतीय स्टेट बैंक जैसी कई कंपनियों ने अपने मुख्यालय कलकत्ता से बाहर स्थानांतरित कर दिए।

बर्मन परिवार का भी शहर में रहना बहुत मुश्किल हो गया। उन्होंने नई दिल्ली को अपना ठिकाना बनाया। वहीं घर लिया और बस गए। 1972 से डाबर का मुख्यालय नई दिल्ली में है।

1998 में हुए बड़े बदलाव

रोज़मेरी मरांडी ने अपनी किताब ‘They Meant Business: 50 Inspiring Stories from Indian Biz’ में बताया है कि 1998 तक डाबर की पूरी कमान बर्मन परिवार की चौथी और पांचवीं पीढ़ी के पास थी। उन्होंने कई अलग-अलग प्रोडक्ट बनाए। इस दौराब डाबर ने हेयर ऑयल से लेकर च्यवनप्राश और टूथपेस्ट तक मार्केट में उतारे। कारोबार फला-फूला लेकिन उस रफ्तार से नहीं जैसा परिवार चाहता था। तेजी से बढ़ने के लिए क्या करना चाहिए इस बारे में परिवार ने काफी सोचा और अंत में एक विशेषज्ञ की मदद लेने का फैसला किया गया।

ग्लोबल फर्म मैकिन्से एंड कंपनी (McKinsey & Company) ने डाबर को एक बहुत ही असामान्य सुझाव दिया। फर्म ने कहा कि बर्मन परिवार को व्यवसाय का नियंत्रण छोड़ना होगा। इसका मतलब था कि परिवार को कंपनी के दिन-प्रतिदिन के कामकाज में भाग लेना बंद करना होगा। उन्हें मुख्य कार्यकारी अधिकारी, वित्तीय अधिकारी आदि पद के लिए बाहर या कंपनी के भीतर से पेशेवरों को नियुक्त करना होगा। परिवार कंपनी के निदेशक मंडल में अपना स्थान बनाए रखेगा और कंपनी के भविष्य के लिए समग्र दृष्टिकोण तय करेगा।

कौन से नए प्रोडक्ट्स को लॉन्च करना है, किन देशों या नए शहरों में बेचना है और कितनी मात्रा में उत्पादन करना है, इस पर अंतिम निर्णय उन पेशेवरों द्वारा लिया जाएगा जो परिवार से संबंधित नहीं होंगे। यह उस समय यह एक क्रांतिकारी विचार था। भारत में बहुत कम ऐसे कारोबारी घराने थे जिन्होंने ऐसा कदम उठाया हो। फिर भी, बर्मन इस सुझाव पर सहमत हुए।

शुरुआत में आईं मुश्किलें

शुरुआत में इस नए सेटअप के साथ काम करना बर्मन परिवार मुश्किल था। कई बार परिवार को पेशेवरों की राय को न चाहते हुए मानना पड़ा। साल 2009 की बात है। आनंद बर्मन (पांचवीं पीढ़ी) कंपनी के चेयरमैन थे। एक बैठक के दौरान उन्हें हाजमोला कैंडी का नया फ्लेवर चखने के लिए कहा गया। आनंद को इसका स्वाद बिल्कुल पसंद नहीं आया। उन्होंने मुख्य कार्यकारी अधिकारी (chief executive officer) सुनील दुग्गल से पूछा कि रिसर्च टीम की कैडी को लेकर क्या राय है। सुनील ने कहा कि रिसर्च टीम का फीडबैक है कि कैंडी अच्छी बिकेगी। ऐसे में आनंद को कैंडी पसंद ना आने के बावजूद हाजमोला मिंट लॉन्च किया गया।