Devdutt Pattanaik on Arts & Culture: (द इंडियन एक्सप्रेस ने UPSC उम्मीदवारों के लिए इतिहास, राजनीति, अंतर्राष्ट्रीय संबंध, कला, संस्कृति और विरासत, पर्यावरण, भूगोल, विज्ञान और टेक्नोलॉजी आदि जैसे मुद्दों और कॉन्सेप्ट्स पर अनुभवी लेखकों और स्कॉलर्स द्वारा लिखे गए लेखों की एक नई सीरीज शुरू की है। सब्जेक्ट एक्सपर्ट्स के साथ पढ़ें और विचार करें और बहुप्रतीक्षित UPSC CSE को पास करने के अपने चांस को बढ़ाएं। पौराणिक कथाओं और संस्कृति में विशेषज्ञता रखने वाले प्रसिद्ध लेखक देवदत्त पटनायक ने अपने इस लेख में जैन पांडुलिपियों में कर्म के ब्रह्मांडीय क्रम पर विस्तार से चर्चा की है।)
जैन दर्शन में प्रत्येक कर्म ब्रह्मांडीय खाते में एक लेन-देन का सृजन करता है। इसके अलावा उपभोग से कर्ज उत्पन्न होता है और उपवास से कर्ज कम होता है। दान से कर्ज प्राप्त होता है। मुक्ति तब प्राप्त होती है जब कोई कर्ज न हो। इस मार्ग का उपदेश देने वाले तीर्थंकर कहलाते हैं, जो कि वे आध्यात्मिक पथप्रदर्शक होते हैं जो दूसरों को जीवन की नदी पार करने में सहायता करते हैं।
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समुदाय का चार श्रेणियों में संगठन
जैन समुदाय को चार श्रेणियों में संगठित किया गया है, इसमें गृहस्थ पुरुष, गृहस्थ महिला, भिक्षु और भिक्षुणी। भिक्षु और भिक्षुणी सांसारिक जीवन का त्याग करते हैं और आत्मा को मुक्त करने के लिए अपने शरीर को अनुशासित करते हैं, जबकि गृहस्थ अनुयायी मठवासी व्यवस्था की आवश्यकताओं को पूरा करते हैं। जैन मंदिरों का निर्माण करके तथा पांडुलिपियों के निर्माण के लिए धन देकर जैन शिक्षाओं का प्रसार करते हैं।
प्राचीन काल में मंदिर कहानियों और प्रतीकों के भंडार थे। उनकी दीवारों और स्तंभों पर तीर्थंकरों की छवियां, जैन ब्रह्मांड विज्ञान के शिलालेख और प्रबुद्ध प्राणियों के जीवन की घटनाएं अंकित थीं । हालांकि पांडुलिपि निर्माण 500 ईसवी में शुरू हुआ था लेकिन यह अभी तक एक प्रमुख गतिविधि नहीं थी।
कपड़ों पर चित्रित की गईं कहानियां
इसके अलावा कपड़े पर कई कलाकृतियाँ बनाई गईं, जिनमें पवित्र प्रतीक या तीर्थयात्रा के नक्शे दर्शाए गए थे, जो लोग पवित्र स्थलों की यात्रा नहीं कर सकते थे, वे इन नक्शों की पूजा करते थे। जो लोग मंदिर बनाने का खर्च वहन नहीं कर सकते थे, वे ऋषियों की कहानियां कपड़े पर चित्रित करते थे। इसमें एक जैन मुनि की कहानी भी है, जो कि तब भी शांत रहे जब एक शिकारी ने किसी भी जानवर का शिकार करने में असमर्थ होने पर अपने कुत्तों को उन पर हमला करने के लिए भेज दिया।
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पांडुलिपि निर्माण कैसे बना एक केंद्रीय सांस्कृतिक अभिव्यक्ति?
साल 1200 ईसवी के बाद जब भारत में इस्लामी शासन का विस्तार हुआ तो मंदिर निर्माण कठिन हो गया। कई तीर्थस्थल नष्ट कर दिए गए या उनका उपयोग बदल दिया गया। जैन समुदाय ने अपनी ऊर्जा लेखन की ओर मोड़ दी और पांडुलिपि बनाने की कला को एक केंद्रीय सांस्कृतिक अभिव्यक्ति में बदल दिया। नतीजा ये कि जो कभी एक मामूली प्रथा हुआ करती थी, वह एक बड़ा उद्योग बन गई।
पांडुलिपियों का निर्माण तो होता था लेकिन समुदाय में साक्षरता का स्तर काफी दयनीय था, क्योंकि लोग मंदिर से संबंधित धार्मिक अनुष्ठानों को प्राथमिकता देते थे। पांडुलिपियों का निर्माण पढ़ने के बारे में नहीं, बल्कि आध्यात्मिक पुण्य अर्जित करने के बारे में था। इस बदलाव से कारीगरों का एक विशाल समुदाय विकसित हुआ। कागज बनाने वाले, चित्रकार, सुलेखक, बढ़ई और धातुकर्मी थे। लेखक विशेष शिल्पकारों द्वारा डिजाइन की गई कलमों से लिखते थे। पांडुलिपियों को संरक्षित करने के लिए ‘भंडार’ नामक पुस्तकालय बनाए गए, जो अक्सर मंदिर परिसरों के अंदर स्थित होते थे।
कागज के आने के बाद हुआ तेज विस्तार
उत्तर में प्रारंभिक पांडुलिपियां भोजपत्रों पर लिखी जाती थीं जबकि दक्षिण में ताड़ के पत्तों का उपयोग किया जाता था। तेरहवीं शताब्दी के आस पास मध्य एशिया से मंगोल नेटवर्क के माध्यम से कागज के आने के साथ ही जैन लेखकों ने इस नए माध्यम का व्यापक रूप से उपयोग करना शुरू कर दिया। कागज चिकना, सुवाह्य और चित्रकारी के लिए आसान था , जिससे सूक्ष्म दृश्य विवरण संभव हो पाता था।
पांडुलिपियों को बक्सों में रखा जाता था और बक्सों को पुस्तकालयों में उपयोग में आने पर उन्हें बक्सों से निकालकर कपड़े में लपेट दिया जाता था। संरक्षण के प्रमुख केंद्र कोंकण, गुजरात और राजस्थान थे, पश्चिमी तट के समृद्ध क्षेत्र जो धनी व्यापारी संघों और मठों का समर्थन करते थे।
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जैन पांडुलिपियों में ज्यामिति, रंग और भक्ति की भूमिका
जैन पांडुलिपि अपनी सटीक संरचना के लिए प्रसिद्ध थी। प्रत्येक पेज एक निश्चित लेआउट का पालन करता था। ये कभी-कभी एक, तीन या पांच पैनलों में विभाजित रहता था। और माप एक टेम्पलेट द्वारा निर्देशित होते थे जो कागज पर बिंदुओं की एक ग्रिड बनाता था। ये बिंदु सुनिश्चित करते थे कि पाठ की पंक्तियां समानांतर रहें और चित्र समान रूप से व्यवस्थित हों । स्वच्छता, व्यवस्था और अनुशासन जैन दर्शन के केंद्रीय मूल्य हैं, इस प्रकार पृष्ठ की ज्यामिति में कलात्मक अभिव्यक्ति पाते थे।
रंगों का भी पांडुलिपियों में काफी महत्व था। पसंदीदा रंगों में लाल रंग शामिल था, जो सिंदूर, गेरू, दिव्य चमक के लिए सोने की पत्ती और सबसे बढ़कर, नीला रंग था, जो अफगानिस्तान से आयातित एक दुर्लभ और महंगा रंगद्रव्य, लैपिस लाजुली से प्राप्त होता था। गहरा नीला रंग जैन लघु चित्रकला का विशिष्ट रंग बन गया, जो शांति और अनंतता का प्रतीक था।
आकृतियों को शैलीबद्ध किया गया था, चेहरे अक्सर पार्श्व रूप में होते थे, फिर भी दोनों आंखें दिखाई जाती थीं। इससे एक विशिष्ट दृश्य लय का निर्माण होता था जो जैन कला को अन्य भारतीय शैलियों से अलग करता था। इन पांडुलिपियों के विषय कल्प सूत्र और अन्य पवित्र ग्रंथों से लिए गए थे। कल्प सूत्र में तीर्थंकरों के जीवन का वर्णन है, जिसमें समय के चक्र, जैन जगत की भौगोलिक स्थिति और सृष्टि एवं विनाश के निरंतर प्रवाह की व्याख्या की गई है। इसमें नौ वासुदेव, उनके बलदेव भाई और उनका विरोध करने वाले प्रतिवासुदेवों के साथ-साथ बारह चक्रवर्ती और चौबीस तीर्थंकरों का भी उल्लेख है।
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दोहराई जाती थीं कहानियां
प्रत्येक तीर्थंकर के जीवन को पंचकल्याणक के नाम से जाने-जाने वाले पांच पवित्र आयोजनों – गर्भाधान, जन्म, त्याग, ज्ञान प्राप्ति और मुक्ति के माध्यम से दर्शाया गया था। पांडुलिपियों में अक्सर इन कथाओं को दोहराया जाता था। कई ग्रंथों में कालका आचार्य कथा जैसे परिशिष्ट भी शामिल थे, जिनमें बताया गया है कि कैसे ऋषि कालका ने उज्जैन के एक अहंकारी शासक को दंडित करने के लिए विदेशी राजाओं को आमंत्रित किया था, जिसने उनकी बहन का अपहरण कर लिया था। एक अन्य लोकप्रिय कथा राजा यशोधरा और उनकी माता के पुनर्जन्म की थी, जिन्होंने यशोधरा की पत्नी के व्यभिचारी व्यवहार का पता लगाया था।
19वीं शताब्दी में सुधार आंदोलनों के तहत कई विद्वानों ने प्राचीन जैन पांडुलिपियों को संरक्षित और अनुवादित करने की इच्छा व्यक्त की। रूढ़िवादी लोगों ने इसका विरोध किया। हालांकि, जब अंततः अनुवाद पूरे हुए तो हरमन जैकोबी जैसे विद्वानों को यह स्पष्ट हो गया कि जैन धर्म एक अलग धर्म है, न कि हिंदू संप्रदाय। जैन एक श्रेणी के रूप में 1881 की ब्रिटिश जनगणना में ही उभर कर सामने आए और इन्हें आर्य समाज जैसे हिंदू सुधार आंदोलनों का विरोध करने के लिए बढ़ावा दिया गया, जो जैनों की अलग पहचान को नकारना चाहते थे।
जैन पांडुलिपि धर्मग्रंथ और कला वस्तु दोनों बन गई। ये एक पवित्र बहीखाता बन गई जिसमें अनंत काल से पहले मानवता के कर्मों और कर्मों का लेखा-जोखा दर्ज है। सुलेख, ज्यामिति और अनुशासित रंगों के माध्यम से जैन चेतना ने एक ऐसे ब्रह्मांड में व्यवस्था की अपनी दृष्टि को व्यक्त किया जो अराजकता या भावनाओं से नहीं, बल्कि कर्म के शांत तर्क से संचालित होता है।
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