Bhupinder Singh Hooda Congress Debacle Haryana: हरियाणा के चुनाव नतीजों के बाद कांग्रेस का केंद्रीय नेतृत्व हार के कारणों की पड़ताल कर रहा है लेकिन कुछ बड़े सवाल जरूर खड़े हो रहे हैं। पहला सवाल यह कि क्या कांग्रेस हाईकमान को हुड्डा पर ज्यादा भरोसा करना भारी पड़ा? क्या कुमारी सैलजा की नाराजगी की वजह से भी कांग्रेस को हरियाणा के चुनाव में नुकसान हुआ है?

इन सवालों के जवाब ढूंढने की कोशिश करते हैं।

‘अबकी बार हुड्डा सरकार’ के नारे और पोस्टर

हरियाणा में कांग्रेस चुनाव हार गई। इस बात पर भरोसा कर पाना पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा और उनके समर्थकों के लिए आसान नहीं है। लोकसभा चुनाव के नतीजे के बाद से ही हुड्डा और उनके समर्थक जोश से लबरेज थे। उन्हें इस बात की पूरी उम्मीद थी कि हरियाणा में अब कांग्रेस की ही सरकार बनेगी। चुनाव प्रचार के दौरान भी हुड्डा और उनके समर्थकों ने जब ‘अबकी बार हुड्डा सरकार’ के पोस्टर और होर्डिंग लगाए तो इससे समझ में आता था कि वे राज्य में कांग्रेस की सरकार बनने और भूपेंद्र सिंह हुड्डा के मुख्यमंत्री बनने को लेकर 100 फीसदी आश्वस्त हैं।

मतदान के बाद जब एग्जिट पोल आए तो उनके इन सपनों को और ताकत मिली और उन्होंने नाचना-गाना-झूमना शुरू कर दिया। लेकिन उनके सपने तब बुरी तरह चकनाचूर हो गए जब नतीजे के दिन शुरुआती रुझानों में बढ़त के बाद भी कांग्रेस पीछे रह गई और बीजेपी ने सरकार बनने लायक विधायक जुटा लिए।

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लोकसभा चुनाव के नतीजे के बाद कांग्रेस का केंद्रीय नेतृत्व भी आश्वस्त हो चुका था कि अब हरियाणा में कांग्रेस की सरकार जरूर बनेगी। क्योंकि पार्टी ने पिछली बार मिली शून्य सीटों से आगे बढ़ते हुए 5 सीटें झटक ली थी। इन पांच सांसदों में से सोनीपत, रोहतक और हिसार के सांसदों को हुड्डा की ही सिफारिश पर टिकट मिला था। रोहतक से हुड्डा के बेटे दीपेंद्र हुड्डा 3.7 लाख वोटों से चुनाव जीते थे।

हुड्डा समर्थकों को मिले अधिकतर टिकट

लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व का भरोसा हुड्डा पर बढ़ गया और एक तरह से पार्टी ने उन्हें चुनाव में आगे कर दिया। भले ही कुमारी सैलजा की नाराजगी से बचने के लिए कांग्रेस नेतृत्व ने हुड्डा को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित नहीं किया लेकिन चुनाव प्रबंधन, टिकट वितरण में यह साफ दिखाई दिया कि हुड्डा अपने विरोधियों पर भारी हैं। 90 में से 72 से 75 टिकट हुड्डा के समर्थकों को ही दिए गए।

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हुड्डा के अलावा उनके सांसद बेटे दीपेंद्र हुड्डा के हाथ में चुनाव प्रचार की कमान दिखाई दी थी। दीपेंद्र हुड्डा ने हरियाणा में कांग्रेस की यात्रा का भी नेतृत्व किया था। हुड्डा परिवार और उनके समर्थकों के आगे आने से गैर जाट समुदाय में यह संदेश गया कि कांग्रेस जाट नेतृत्व को आगे कर रहा है और इसके विरोध में गैर जाट मतदाता एकजुट होते हुए दिखाई दिए। इसका पता जाट बेल्ट में बीजेपी के अच्छे प्रदर्शन से चलता है।

अब आते हैं दूसरे सवाल पर कि क्या कुमारी सैलजा की नाराजगी की वजह से कांग्रेस को नुकसान हुआ है?

चुनाव प्रचार से दूर रही थीं सैलजा

याद दिलाना होगा कि कुमारी सैलजा ने काफी दिनों तक चुनाव प्रचार से किनारा कर लिया था। कांग्रेस के एक समर्थक द्वारा जातिगत टिप्पणी करने और चुनाव में टिकट वितरण में तरजीह न दिए जाने की वजह से सैलजा नाराज रहीं। सैलजा विधानसभा चुनाव लड़ना चाहती थीं लेकिन कांग्रेस नेतृत्व इसके लिए तैयार नहीं हुआ।

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बीजेपी ने सैलजा की नाराजगी को भुनाने की कोशिश की थी। चुनाव नतीजों से पता चलता है कि कांग्रेस को दलित मतदाताओं का समर्थन कम मिला है। हरियाणा में दलित मतदाताओं के लिए आरक्षित 17 सीटों में बीजेपी की संख्या बढ़ी है। 2019 में बीजेपी को 5 सीटें मिली थी जबकि इस बार पार्टी ने यहां 8 सीटें जीती हैं और 9 सीटें कांग्रेस के खाते में गई हैं। जबकि कांग्रेस को ऐसी उम्मीद थी कि हरियाणा में वह दलित मतों का बड़ा हिस्सा ले जाएगी।

राहुल गांधी ने असंध में हुई रैली में हालांकि हुड्डा और सैलजा के हाथ मिलवाने की कोशिश की लेकिन ऐसा लगता है कि तब तक काफी देर हो चुकी थी और सैलजा के समर्थकों और दलित समाज के लोगों में यह संदेश गया कि कांग्रेस उनकी नेता की उपेक्षा कर रही है और इसका पता आरक्षित सीटों के नतीजों से चलता है। माना जा रहा है कि कुमारी सैलजा की नाराजगी की वजह से ऐसा हुआ है।