राजधानी बर्लिन में मकानों के किराये की समस्या ने पूरे जर्मनी को उलझा दिया है। पहले बहस ये हो रही थी कि कमजोर तबके के लोगों को किफायती घर कैसे उपलब्ध कराए जाएं तो अब ये बहस वामपंथियों और दक्षिणपंथियों के बीच सैद्धांतिक बहस में बदल गई है। वामपंथियों का कहना है कि मकान मालिकों को किराया बढ़ाने पर रोका जाए ताकि सस्ते में घर मिल पाएं जबकि दक्षिणपंथियों का कहना है कि इससे घरों के रखरखाव पर होने वाला निवेश रुक जाएगा और मकानों की हालत खस्ता होती जाएगी। ऐसे में इस मसले ने देश के प्रमुख राजनीतिक संघर्ष का रूप ले लिया है।

विकास के साथ मकानों की कीमत और उसके साथ किरायों का बढ़ना भी सामान्य बात है। जर्मनी के साथ भी कुछ अलग नहीं है। जैसे कि पश्चिमी जर्मनी के म्यूनिख जैसे शहर अत्यंत महंगे माने जाते हैं जहां नई नौकरी शुरू करने वाले पुलिसकर्मियों और नर्सों को उपयुक्त मकान नहीं मिलता। ये हालत तब है जब वहां लोगों को जर्मनी के औसत से करीब 17 प्रतिशत ज्यादा तनख्वाह मिलती है। पुलिसकर्मी और नर्स इसलिए कि सरकारी तनख्वाह की सीढ़ी में ये पद सबसे कम तनख्वाह पाने वाले पदों में शामिल हैं। लेकिन चूंकि ये सरकारी नौकरियां हैं, तो सरकार समय समय पर सार्वजनिक क्षेत्र के मकान बनाकर समस्या से निबटती आई है।

बर्लिन को आम तौर पर गरीब शहर माना जाता है जहां केंद्र सरकार के जाने के बाद राजनीतिक ताकत तो पहुंच गई है लेकिन ज्यादा तनख्वाह देने वाले रोजगार नहीं पहुंचे हैं। बर्लिन जर्मनी का वह शहर है जो शीतयुद्ध के दौरान विभाजित था और एकीकरण के बाद 1990 में एक हुआ। पूर्वी जर्मनी तो पहले से ही गरीब था लेकिन एकीकरण के बाद पश्चिमी बर्लिन भी गरीब हो गया क्योंकि जिन कंपनियों को कम्युनिस्ट जर्मनी के घेरे में होने के कारण ऊंची सब्सिडी मिलती थी, सब्सिडी बंद होने की वजह से वे शहर छोड़ गईं। बर्लिन गरीब होने लगा। सरकार को अपनी संपत्तियां बेचनी पड़ीं। शहर ने अपने बहुत सारे मकान भी बेच दिए। एक समय ऐसा आया कि बर्लिन के मेयर को कहना पड़ा कि बर्लिन गरीब है लेकिन सेक्सी है।

सेक्सी बर्लिन में दुनिया भर से आने वाले पर्यटकों की कतार लग गई। वह शीघ्र ही जर्मनी का सबसे लोकप्रिय पर्यटन केंद्र बन गया। वहां आने वाले ज्यादातर लोग युवा थे जिनके पास ज्यादा पैसा नहीं था। लेकिन बर्लिन के पास न तो बहुत से होटल थे और न ही यूथ होस्टल। शुरू हुआ शहर के मकानों में पर्यटकों को ठहराने का सिलसिला। शहर में रहने वालों के लिए मकान घटने लगे। जो मकान थे उनकी मांग बढ़ रही थी और इसके साथ किराये बढ़ रहे थे। इसी के साथ आया 2008 का वित्तीय संकट। इसने दुनिया भर के इंवेस्टमेंट बैंकरों को जर्मनी की ओर आकर्षित किया जहां मकान सस्ते थे और किराये बढ़ने की संभावना थी। मकानों में निवेश होने लगा। बहुत से भारतीयों ने भी निवेश किया।

इसके साथ ही बल्रिन स्टार्ट अप कंपनियों का मक्का भी बन गया। सस्ता होने के कारण बहुत से युवा लोग वहां सिर्फ पर्यटन के लिए ही नहीं आए बल्कि सुविधाएं देखकर वहां कंपनी भी खोली। मकान महंगे होते गए। यहां तक कि सरकारी मकान भी सस्ते नहीं नहीं रहे। हालांकि जर्मनी में किराया बढ़ाने के सख्त नियम हैं लेकिन निवेश का खर्चा किरायेदारों पर डाला जा सकता है। अब मकान का आधुनिकीकरण कैसा होगा और उस पर कितना खर्च होगा, इसका फैसला तो मकान मालिक ही करेगा। ये उनकी कमाई का रास्ता बन गया। जो लोग नया किराया चुकाने की हालत में नहीं हैं, उन्हें घर छोड़ना पड़ा। हालत यहां तक आ पहुंची कि शहर का विभाजन अमीरों और गरीबों के आधार पर होने का खतरा पैदा हो गया। ये हालत जर्मनी में पहले कभी नहीं थी।

बर्लिन में इस समय एसपीडी, डी लिंके और ग्रीन पार्टी की साझा सरकार है। ये वामपंथी पार्टियां हैं। हालांकि वामपंथी डी लिंके के सुझाव पर इन दलों में पूरी सहमति नहीं है क्योंकि किराये पर रोक लगाई जा सकती है या नहीं, ये संवैधानिक मसला भी है। संविधान संपत्ति की गारंटी देता है और संपत्ति पर कितना किराया लिया जाए, ये समझौता करने वाली पार्टियों पर निर्भर करता है। फिर भी इन पार्टियों में इस बात पर सहमति है कि किराये को इस तरह नियमित किया जाए कि लोगों को घर छोड़ना न पड़े और सामाजिक विभाजन पैदा न हो। प्रस्ताव ये है कि किराये को मौजूदा स्तर पर रोक दिया जाए और वह पांच साल तक न बढ़े।

विपक्षी पार्टियों ने इसका विरोध करने की घोषणा की है क्योंकि वे किराये पर रोक को किराये संकट का समाधान नहीं समझते। चांसलर अंगेला मैर्केल की सीडीयू के अलावा उदारवादी एफडीपी और धुर दक्षिणपंथी एएफडी का कहना है कि वामपंथी पार्टियों का ये कदम निवेश के लिए हानिकारक होगा। यदि सरकारी और सार्वजनिक कंपनियों के पास पैसा नहीं रहेगा तो नए मकानों में निवेश नहीं कर पाएंगे और शहर में मकानों की स्थिति और गंभीर होती जाएगी। यही बात बाहरी निवेश पर भी लागू होती है कि यदि किराये नहीं बढ़ेगें तो मुनाफा नहीं बढ़ेगा और फिर कौन करेगा मकानों में निवेश। मामला भले ही वामपंथी और दक्षिणपंथी नजरिये से जुड़ गया हो, लेकिन बर्लिन का फैसला जर्मनी में मकानों की समस्या को सुलझाने का रास्ता तय करेगा।

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